लंबे अंतराल के बाद एक ग़ज़ल के साथ
2122 1212 22
चाँद के चर्चे आसमानों में
और मेरे सभी फसानों में
अय हवा बख्श दे अभी ये लौ
हैं अँधेरे गरीबखानों में
हम सुख़नवर से पीर ज़िंदा है
दर्द का मोल क्या दुकानों में
आँखों में आँसुओं का डेरा है
ख्वाब हैं क़ैद मर्तबानों में
पंछियों के लिए सदा रखना
कोई उम्मीद आबदानों में
दिल जला 'ब्रज' जरा सुकूँ आये
रौशनी भी रहे मकानों में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आभार संग नमन आदरणीय धामी जी...
आ. भाई बृजेश कुमार जी, सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
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