बह्र-ए-मीर
पतझर में भी गीत बसंती गाऊँ तो
जैसा जग है वैसा ही हो जाऊँ तो
अंदर का अँधियारा क्या छट जायेगा
कोशिश करके बाहर दीप जलाऊँ तो
शायद लौट चले आएं रूठे पलछिन
फूलों से जो उनकी राह सजाऊँ तो
कार्य हमारे भी सारे सध जायेंगे
सुविधा शुल्क लिये ये हाथ बढ़ाऊँ तो
जग सारा देखेगा 'ब्रज' के पांव फटे
जो चादर के बाहर पग फैलाऊँ तो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
ग़ज़ल पे हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया यादव जी...
बहुत सुंदर गजल हुई है। काबिल-ए-तारीफ है। बधाई स्वीकार कीजिए।
आदरणीय शर्मा जी बिलकुल सहमत हूँ...सुन्दर शब्दों के लिए आभार
आदरणीया मधु जी आपका हार्दिक अभिनन्दन वंदन...
ग़ज़ल पे आपकी शिरक़त के लिये शुक्रिया आदरणीय समर जी..आपके बताये अनुसार सुधार करता हूँ..
सुन्दर शब्दों में उत्साहवर्धन के लिये हार्दिक आभार आदरणीय धामी जी...
आदरणीय सुरेन्द्र जी ग़ज़ल पसंदगी के लिए शुक्रगुजार है...
आदरणीय रवि जी रचना पटल पे आपकी उपस्थित के वंदनीय है..उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी सादर नमस्कार
बहुत सुंदर
आदरणीय समर कबीर जी का सुझाव काबिले गौर है
बधाई आपको
आदरणीय बृजेश कुमार' ब्रज ' जी नमस्कार! बहुत ही सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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