छोटू - लघुकथा –
पत्रकार सम्मेलन से लौटते हुए एक ढावे पर चाय पीने रुक गया।ढावे पर एक नौ दस साल के बच्चे को काम करते देख मेरे अंदर की पत्रकारिता जनित मानवता जाग उठी।मैंने उसे इशारे से बुलाया,"क्या नाम है तुम्हारा?"
वह मेरे चेहरे को टुकुर टुकुर देख रहा था। मैंने पुनः वही प्रश्न दोहराया।वह तो फिर भी वैसे ही गुमसुम खड़ा रहा लेकिन ढावे का मालिक आगया,"साहब, इसका नाम छोटू है।यह गूंगा बहरा है।"
"इसके माँ बाप कहाँ हैं?"
"ये अनाथ है।"
"मैं इसकी एक फोटो ले लूँ।"
"वह किसलिये?"
"मेरा अखबार निकलता है।इसकी फोटो उसमें छाप दूंगा। शायद कोई रिश्तेदार निकल आये।"
"अरे साहब ऐसा मत करो।नकली रिश्तेदार बनकर लोग आ जायेंगे और इसे बंधुआ बनाकर रखेंगे।"
"आप भी तो वही कर रहे हो।"
"क्या बात कर रहे हो साहब? अपने बेटे की तरह पाल रहा हूँ।"
"क्या स्कूल जाता है यह?"
"क्या मज़ाक करते हो साहब? यह तो गूँगा बहरा है।"
"आजकल इन लोगों के लिये भी स्कूल खुल गये हैं। वहाँ इनके रहने खाने की भी व्यवस्था होती है। शिक्षा भी निशुल्क है।"
"ठीक है साहब मैं पता करूंगा।"
"आप कहो तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ।"
"अरे नहीं साहब। बहुत बहुत शुक्रिया।मैं कर लूंगा।"
फिर भी चलने से पहले मैंने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे दे दिया,"यदि आप से नहीं हो तो मुझे फोन कर लेना।"
इतना बोल मैं अपनी कार की ओर बढ़ गया।मैं कार आगे बढ़ाने ही वाला था कि वह छोटू कार की ओर दौड़ता दिखा।
"साहब आपका पर्स।"मैं चकित रह गया।
"अरे छोटू तुम तो बोल लेते हो।"
"साहब मैं गूंगा बहरा नहीं हूँ।मुझे इसी शर्त पर नौकरी मिली है।"
इतना बोल छोटू वापस भाग गया।
और मैंने भी एक संकल्प के साथ कार आगे बढ़ा दी।
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज जी।
बहुत ही शानदार भाव चित्रण है आदरणीय...लघु कथा गागर में सागर की तरह ही होनी चाहिए।जिसे पढ़ कर तृप्ति भी हो और प्यास भी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब जी। आदाब।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा लिखी आपने, बधाई स्वीकार करें ।
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