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बात मुख्तसर सी थी गर कही नहीं होती
लाठी एक तनकर थी अब खड़ी नहीं होती (1)
छोटे छोटे ख़्वाबों का रोज़ क़त्ल करती है
बेटी क्यों ये आसानी से बड़ी नहीं होती (2)
आपसे मिलूँ गर मैं तो उदास होता हूँ
और जब नहीं मिलते तो ख़ुशी नहीं होती (3)
बढ़ नहीं सकी आगे कार ही उमीदों की
लाल ही रही बत्ती वो हरी नहीं होती (4)
ज़िंदगी में दोनों तो साथ साथ रहते हैं
पर गुलाब काँटों में दोस्ती नहीं होती (5)
दश्त-ओ-सहरा में या फिर ढूँढ ज़ह्न में इसको
राह में ख़ुशी कोई तो पड़ी नहीं होती (6)
पास है मेरे सब कुछ क्या बताऊँ पर "सालिक"
चाहिए जो शै मुझको वो मेरी नहीं होती (7)
©सालिक गणवीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय भाई नाथ सोनांचली जी
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और सराहना के लिए हार्दिक आभार।
उस्ताद - ए - मुहतरम Samar kabeer साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और सराहना के लिए हार्दिक आभार। जी मतले का सानी बदलने की कोशिश करता हूँ
आद सालीक गणवीर भाई जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले का सानी मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
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