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यह रास्ते ... यह मोड़

यह रास्ते … यह मोड़
 
मुद्दतें  हो  चुकी  हैं रास्तों  को
रास्तों  से अलग  हुए
फिर  भी  कोई  उमीद  लिए
रात से  भोर  तक और  फिर
एक और  रात  तक  
लैम्पपोस्ट  के कांपते  प्रकाश  तले
समर्पण  भाव  से  यह  रास्ते
चट्टानी  चुप्पी  की  चादर  ओढ़े
यह  उसी  मोड़  पर जुड़े  रहे
 
जमी  रही  है  उस  मोड़  पर
अनोखी  इमानदारी  से
हमारी  विरह  की  परछाईं
सपनीली  छाँह-सी
वियोगमयी,  गहरी, बहुत  गहरी
प्यार  की  मुहर  बनी
कि  कोई  आने  वाले  रुक  कर  यहाँ
पहचानें  इसमें  अपनी  व्यथाएँ
अपने  ही  वियोग की  कोमलता  गहरी
                --------
 -- विजय निकोर
( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by vijay nikore on June 7, 2021 at 11:34am

आपका हार्दिक आभार, मेरे मित्र सुशील जी और लक्ष्मण जी।

Comment by Sushil Sarna on April 27, 2021 at 3:47pm
आदरणीय विजय निकोर जी वाह गहन भावों की सहज अभिव्यक्ति । हार्दिक बधाई सर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 26, 2021 at 6:32am

आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई।

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