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आशा .......

बहुत कोशिश की
मगर हार गई मैं
उस अनुपस्थिति से
जो हर लम्हा मेरे जहन में जीती है
एक खौफ के लिबास में
मुझे ठेंगा दिखाते हुए

भोर से लेकर साँझ तक
दिनभर की व्यस्ततम गतिविधियों के बीच
हमेशा झकझोरती है
किसी ग़ैर की मौजूदगी
मेरे अंतःस्थल को
उस की अनुपस्थिति के लिए

निराशा की स्वर वीचियों के बीच कहाँ लुप्त होते हैं
आशा को प्रज्वलित करते अनुपस्थिति के स्वर
थकान की पराकाष्ठा पर
जब बदन निढाल होकर नींद से बतियाता है
किताब पढ़ते - पढ़ते खुली रह जाती है
तब अनुपस्थिति की दहलीज पर
आशा मन्द - मन्द मुस्कुराती है
अपनी जीत पर

सुशील सरना /

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 11, 2021 at 3:38pm

आप अब स्वस्थ होकर उपस्थित हैं यही हमारे लिए सर्वोत्तम आभार है । स्नेह बनाए रखें .

Comment by Sushil Sarna on July 11, 2021 at 1:47pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है ।कोरोना के कारण आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा सर ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 3, 2021 at 9:01am

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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