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चिन्ता करें जो आम की शासन नहीं रहे
कारण इसी के लाखों के जीवन नहीं रहे।१।
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हर कोई खेल सकता है पैसों के जोर पर
कानून आज देश में बन्धन नहीं रहे।२।
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अब हो गये हैं आँख वो भूखे से गिद्ध की
जो थे बचाते लाज को यौवन नहीं रहे।३।
*
आई हवा नगर की तो दीवारें बन गयीं
मिलजुल जहाँ थे बैठते आगन नहीं रहे।४।
*
जीवन का दर्द आँखों में उनकी रहा जवाँ
बेवा हो जिनके हाथों में कंगन नहीं रहे।५।
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तकनीक जबसे आ घुसी सबके दिमाग में
आँगन उछलते कूँदते बचपन नहीं रहे।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति , स्नेह व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आपकी यह गज़ल पढ़ कर भी आनन्द आ गया। हार्दिक बधाई, मेरे भाई, लक्ष्मण जी।
आ. भाई आज़ी तमाम जी, हार्दिक धन्यवाद।
सादर प्रणाम आ धामी सर आपकी ग़ज़लों में एक अलग ही बात होती है
सुंदर ग़ज़ल है
कहीं कहीं टंकण त्रुटियां हैं एक बार देख लीजियेगा
सादर
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