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कहते है लोग प्रीत की हमको समझ नहीं
दुश्मन के साथ मीत की हमको समझ नहीं।१।
*
नफरत ही नित्य बँट रही सरकार इसलिए
आँगन में उठती भीत की हमको समझ नहीं।२।
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न्योतो न आप मंच से महफिल बिगाड़ने
कविता गजल या गीत की हमको समझ नहीं।३।
*
हम ने सदा ही धूप का रस्ता बुहारा पर
रिश्तों में पसरी शीत की हमको समझ नहीं।४।
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समझा नहीं है खेल मुहब्बत को इसलिए
इस में ही हार जीत की हमको समझ नहीं।५।
*
यूँ तो समूचे जग का चलन सीखा यार पर
क्योंकर स्वयं के रीत की हमको समझ नहीं।६।
*
हस्ती हमारी मिट के ही इक दिन रहेगी फिर
कुछ भी अगर अतीत की हमको समझ नहीं।७।
(२२-७-२१)
मौलिक /अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व स्नेह के लिए आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। बहुत सुन्दर ग़ज़ल ।
नफरत ही नित्य बँट रही सरकार इसलिए
आँगन में उठती भीत की हमको समझ नहीं।२।
आ. भाई समर जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
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