तेरे मेरे दोहे :......
बनकर यकीन आ गए, वो ख़्वाबों के ख़्वाब ।
मिली दीद से दीद तो, फीकी लगी शराब ।।
जीवन आदि अनंत का, अद्भुत है संसार ।
एक पृष्ठ पर जीत है, एक पृष्ठ पर हार ।।
बढ़ती जाती कामना ,ज्यों-ज्यों घटता श्वास ।
अवगुंठन में श्वास के, जीवित रहती प्यास ।।
कल में कल की कामना ,छल करती हर बार ।
कल के चक्कर में फँसा , ये सारा संसार ।।
बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।
उम्र भर का दे गए, इस चश्म को फ़राग़ ।।
तन्हाइयों में गूँजने, लगे हिज्र के राग ।
तारीकी में वस्ल की, सुलगी दिल में आग ।।
सुशील सरना/28-11-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
देवनागरी लिपि में हिंदी भाषा का व्याकरण या छंदशास्त्र ऐसे किसी नियम की चर्चा नहीं करता कि आग और चिराग की तुकांतता संभव नहीं है.
ऐसे सुझाव नेष्ट हैं, आदरणीय. अनावश्यक ही भ्रमकारी समझ व्यापती है.
शुभातिशुभ
आ. सुशिल जी,
चराग़ के साथ दाग़ बाग़ फ़राग़ दिमाग़ सुराग़ आदि तुकांत लिए जा सकते हैं.
आ. सुशील जी,
दोहों के विधान पर सौरभ सर की विस्तृत टिप्पणी से मैं भी लाभान्वित हुआ हूँ ..
दोहे शानदार हुए हैं...
तीसरे दोहे में प्रयुक्त शब्द श्वास पुल्लिंग है अत: घटता कर लें .
अंतिम दोहे में चिराग़ और आग में तुकांतता नहीं बन रही है..
शेष शुभ
दोहों में भावनाओं का ज्वार विस्फोट करने को आतुर प्रतीत हुआ, जिसे आपने शब्दों का आकार देकर संयमित कर दिया है, आदरणीय सुशील सरना जी. बहरहाल इस बिन्दु पर चर्चा होती रहेगी. कि, अपना ओबीओ-मंच विधाओं के शैल्पिक निर्वहन के प्रति रचनाकारों को सचेत करने के दायित्त्व के प्रति संवेदनशील है.
मैं तो पहले दोहे के पहले विषम चरण पर ही रुक गया. .. बनकर यकीन आ गए,..
इस चरण की पंक्ति का विन्यास रोचक है. दोहा विधा के प्रथम चरण के विन्यास का तार्किक पालन न करने के बावजूद यह पंक्ति प्रवहमान प्रतीत हो रही है. वस्तुतः, यह अंतर्गेयता का चामत्कारिक उदाहरण है.
चौकल से प्रारम्भ होने वाले विषम चरण का विन्यास निम्नलिखित है :
4, 4, 3, 2
इस हिसाब से उक्त चरण की पंक्ति को देखा जाय :
बनकर (4) + यकी +न (4) आ + ग (3) + ए (2)
यहाँ, यकीन (4) एक जगण शब्द है. जिसका होना विन्यास को नेष्ट या क्लिष्ट तो बनाता ही है. इसे आपने इस शब्द के आगे ’आ’ को रख कर त्रिकल पर त्रिकल के नियम का पालन किया है, जिससे षटकल का निर्माण हो रहा है. फिर इसके आगे का ’गये’ का ’ये’ नियमानुसार द्विकल है.
यथा,
’यकी+न आ’ = त्रिकल पर त्रिकल
अर्थात, इस पंक्ति के विन्यास में दो तरह के नियमों का पालन हो रहा है.
लेकिन, इसे बहर के लिहाज से देखें तो ..
बनकर य (२२१) कीन आ ग (२१२१) ए वो ख्वाबों (१२२१) के ख्वाब ....
अर्थात आखिरी ’ख्वाबों के ख्वाब’ को छोड़ दें, तो विन्यास बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब (221 2121 1121 212) के विन्यास को संतुष्ट करता हुआ है.
बनकर य (221) कीन आ ग (2121) ए वो ख्वाबों (1221)
यह भी एक कारण है कि उक्त विषम चरण की पंक्ति प्रवहमान दीख रही है.
दूसरे दोहे में, जीवन आदि अंत का को आपने जीवन आदी (?) अंत का की तरह पढ़ कर विन्यास मे ला अवश्य दिया है, लेकिन इस चरण की पंक्ति में वस्तुतः एक मात्रा कम है. इसे ओर ध्यान रहे.
बाकी दोहों में अंतर्निहित भाव, जैसा मैंने कहा ही है, सान्द्र हैं.
प्रयास हेतु हार्दिक बधाई, आदरणीय सुशील सरना जी.
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