बूंदों का बरसना यूं बिजली का कड़कना
कुछ याद पुरानी सी तड़पा के हमको चली गयी
बात हल्की सी थी बिल्कुल फुहारों की तरह
अनसुनी सी कानो में सुना के वो चली गयी
एक मुद्दत से हमने अश्कों को छुपा रक्खा था
बेदर्द थी बारिश आज हमे रुला के चली गयी
आज मस्ती थी बड़ी झूमता हर एक ग़म था
छत फूटी थी मेरी बि स्तर भींगा के चली गयी
पक्के मकान को गर्मी से जैसे राहत थी मिली
फुटपाथ के बर्तन को संग बहा के चली गयी
नांव से खेलते थे बच्चे घर के आंगन में
कच्चे मकान को पल में डूबा के चली गयी
आँगन में कि सी के कुछ का अनाज रक्खा था
तेज़ी से आई वो संग अपने बहा कर चली गयी
खेत में अभी ही तो खिली थी बेलियाँ
बेलों के साथ वो मिट्टी भी अपने ले चली गयी
घाव गहरे थे मेरे मलमल से छुपा रक्खा था
साथ मेरे मलमल को भी भींगा के चली गयी
दाग जितने भी लगे थे उसकी आँचल में
आज सबको धो के साथ अपने लेके चली गयी
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
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