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युद्ध के दोहे- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

देगा हल क्या ये भला, स्वयं समस्या युद्ध
दम्भी इस को ओढ़ता, तजता सदा प्रबुद्ध।१।
*
युद्ध न लाता भोर है, यह दे केवल साँझ
इस के हर परिणाम से, होती धरती बाँझ।२।
*
सज्जन टाले युद्ध को, दुर्जन दे सत्कार
जो झेले वह जानता, कैसी इसकी मार।३।
*
लोग समझते शांति की, यह रचता बुनियाद
लेकिन बचती राख ही, सदा युद्ध के बाद।४।
*
इससे बढ़ता नित्य ही, दुख का पारावार
जाने अन्तिम युद्ध कब, होगा इस संसार।५।
*
सदा प्रगति शान्ति का, युद्ध बना अवरोध
लेकिन दम्भी को नहीं, होता इस का बोध।६।
*
दुख देता है यह बहुत, भला न करता युद्ध
जिस दुख को सिद्धार्थ थे, बने जगत में बुद्ध।७।
*
बस कायर डरपोक ही, इसको रहा अधीर
सदा युद्ध जो टालता, वो ही सच्चा वीर।८।
*
हरता बुद्धि- विवेक को, भरता नित उन्माद
रचें गिद्ध ही भोज को, आज युद्ध का वाद।९।
*
जीवन भी इक युद्ध है, बात बहुत है शुद्ध
कोशिश करते बस रहो, रुके नहीं ये युद्ध।१०।
*

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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