यह नवयुग की नारी है, सुमन रूप चिंगारी है।।
अबला औ' नादान नहीं अब।
दबी हुई पहचान नहीं अब।।
खुली डायरी का पन्ना है,
बन्द पड़ा दीवान नहीं अब।।
अंतस स्वाभिमान भरा है, लिए नहीं लाचारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
संघर्षों में तप कर निखरी।
पैमानों पर चोखी उतरी।।*
जितना इसको गया दबाया,
उतना बढ़चढ़ यह तो उभरी।।*
हल्के में मत इस को लो, छिपी हुई दोधारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
इसका साहस जब नभ गाता।
करता सुनकर गर्व विधाता।।
घर, बाहर कर्तव्य निभाती,
कहना नहीं, नहीं है आता।।
रौंदे जो उत्तुंग शिखर भी, करती लहर सवारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
मोम भले ही कहलाती है।।
हर साँचे में ढल जाती है।।
दीप शिखा जैसा ले जीवन,
जो हर घर तमस मिटाती है।।
स्वयं सिद्ध हुई गुणों से, हर पद की अधिकारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
जहाँ तहाँ आधार बनी है।।
इस कारण ही पंक सनी है।।
नहीं बूझता पौरुषवादी,
इसकी पीड़ा बहुत घनी है।।
सुख का हर भण्डार लिए, भले बहुत दुखियारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
नारी ने कमजोर किया कब।।
पीड़ित हूँ ये शोर किया कब।।
कर्तव्यों को हर दुख झेला,
हर्षों को निज ओर किया कब।।
हर जीवित रिश्ते पर वो, पहले सी बलिहारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
नहीं पराजित करना चाहे।।
बस परिवर्तन भरना चाहे।।
पौरुष से कब रही लड़ाई,
सहचर बनी उभरना चाहे।।
सोच बदलकर समझो ये, कहाँ नहीं आभारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
शत्रु निरूपित करो नहीं तुम।।
और वैमनस्य भरो नहीं तुम।।
द्वार नर्क का बोल इसी को,
पगपग पर यूँ वरो नहीं तुम।।
बालापन में पूजा कर, कहते जब अवतारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
**
मौलिक . अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। उपस्थिति , स्नेह व मार्गदर्शन के लिए आभार।
आपका मार्गदर्शन इस विधा को साधने में सहायक होगा। सादर..
आपका प्रयास श्लाघनीय है, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी.
यह अवश्य है कि यह प्रस्तुति गेय, तुकान्त कविता है. साहित्यिक गीत यदि किसी प्रबंध अथवा खण्ड काव्य का हिस्सा न हों तो कुल तीन से चार अंतरों में ही अपने विषयवस्तु के साथ मान्य होते हैं.
आप अभ्यासरत रहें ्.
शुभातिशुभ
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति, प्रशंसा व सुझाव के लिए आभार।
आ. वीना जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार ।
सुंदर गीत की सर्जना हुई है, भाई लक्ष्मण सिंह मुसाफिर साहब, बधाई स्वीकार करें ! किचिंत सुधार की भी अपेक्षा रहेगी, ( 1) " नहीं बुझता पुरुषवादी , बुझता के स्थान पर "पूछता" कदाचित बेहतर विकल्प होता !
(2) "और" को "मन" से बदल कर देखें, सार्थकता बढ़ जाती है !
(3) "पग पग पर वरो नहीं तुम " 'वरो' क्रिया का प्रयोग यहाँ तात्पर्य- विरुद्ध है, अत: 'तजो' सही संदर्भ गत क्रिया होगी ।
सादर
स
सुंदर ,भावपूर्ण ,यथार्थ दर्शाती रचना
आ. भाई विजय जी सादर अभिवादन। गीत पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से मन प्रफुल्लित है। आपके अनुमोदन से लेखन सफल हुआ । हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी, बहुत ही सुंदर , सार्थक , सामयिक एवं विस्तृत प्रस्तुति.
मोम भले ही कहलाती है।।
हर साँचे में ढल जाती है।।
दीप शिखा जैसा ले जीवन,
जो हर घर तमस मिटाती है।।
स्वयं सिद्ध हुई गुणों से, हर पद की अधिकारी है।।
यह नवयुग की नारी है.....
सराहनीय. नारी दिवस पर एक सम्मानजनक रचना प्रस्तुत हुई , आपको बहुत बहुत हार्दिक बधाई, सादर।
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