फैला आँचल है बहुत, लेकिन चोली तंग।
धरा देश की देखिए, लिए अनोखे रंग।।
*
भरें अनोखे रंग नित, जीवन में त्योहार।
तभी सनातन धर्म में, है इनकी भरमार।।
*
बहना, माता, सहचरी, बंधु , तात आधार।
भरे अनोखे रंग नित, मीत रूप में प्यार।।
*
बचपन यौवन वृद्धता, चलते संग कुसंग।
नित जीवन देता रहा, हमें अनोखे रंग।।
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बड़े अनोखे रंग यूँ, रखती धरती पास।
पानी पानी है कहीं, कहीं सिर्फ है प्यास।।
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विविध अनोखे रंग की, मौसम मौसम धार।
धरती हँसे वसन्त में, ग्रीष्म जले हर बार।।
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पतझड़, पावस ग्रीष्म सह, चुरा शीत से मीत।
पोत अनोखे रंग अब, फागुन गाता गीत।।
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सतरंगी सपने हुए, यौवन लिया उभार।
रंग अनोखे प्रीत के, होली का उपहार।।
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बचपन बीता खेलते, सखी सहेली संग।
चढ़ते योवन दे गया, पिया अनोखे रंग।।
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कहीं छाँव ही छाँव है, कहीं धूप ही धूप।
सजा अनोखे रंग से, धरा चली है रूप।।
*
रोने हँसने क्रोध सह, सुख दुख जोश उमंग।
हर जीवन घुलते रहे, सदा अनोखे रंग।।
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मौलिक/अप्रकाशित-
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन व स्नेहाशीष के लिए हार्दिक आभार।
आपकी सतत उत्साहवर्धक व मार्गदर्शक प्रतिक्रिया निरंतर प्रयास को प्रेरित करती हैं । यह आशीष सदा बना रहे यही कामना है । सादर..
आपके फागुनी दोहे बहुत कुछ कहते हुए भी कितने शिष्ट और संयत हैं, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ! वाह-वाह..
प्रस्तुत दोहे का वैशिष्ट्य निस्संदेह मोहक है.
//भरें अनोखे रंग नित, जीवन में त्योहार।
तभी सनातन धर्म में, है इनकी भरमार //
शुभातिशुभ .. होली की शुभकामनाएँ
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी उपस्थिति व प्रशंसा से उत्साहवर्धन हुआ। हार्दिक धन्यवाद।
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