संतरी
कई पहरेदार बदले,पर हालत नहीं बदली। मंदिर के सामान गायब होते रहे। हारकर पंचायत ने काली कुतिया के जने कजरे को संतरी बहाल किया।कारण था कि कजरा रात भर में गाँव के सभी दरवाजों पर भौंक आता था। यह भी तय हुआ कि अब कुत्तों को ‘संतरी’ कहा जाएगा। आदमी पर से भरोसा उठ चुका था।
कजरा काम पर लग गया। रातभर मंदिर के आसपास घूमता। भौंकता। गाँव भर के ‘संतरी’ भी भौंकते।लेकिन अब नित नई-नई शिकायतें आने लगीं।
‘मंदिर के आसपास गंदगी फैलाता है,यह कजरा।’
‘हमने ही तो बहाल किया है न?’ कोई जवाब देता।
‘आज इसने मंदिर की दीवार पर ही पेशाब कर दिया।’
‘ये लोग वैसे ही करते हैं, टांग उठाकर।’ कोई दूसरा कहता।
‘आज हो हद ही हो गई। कजरा ने देव-मूर्ति के पास ही पेशाब करना शुरू किया था। पुजारी जी ने फटकार कर भगाया।’
‘अरे बाप रे बाप! किसी दिन यह देव-मूर्ति को अपवित्र न कर दे।दुहाई भगवान! रक्षा करें।’
‘ऐसा नहीं चलेगा। कुछ सोचना होगा।’ पंचायत से समूहिक आवाज उठी। कजरा निपटा दिया गया। अब नया संतरी ढूंढा जा रहा है।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आपका आभार आदरणीय लक्ष्मण जी।नमन।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
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