कह रहे हैं आज हम भी तानकर सीना।
प्रीत ने चलना सिखाया, प्रीत ने जीना।।
*
थे भटकते फिर रहे पथ में अकेले।
आप आये तो जुड़े हम से बहुत मेले।।
था नहीं परिचय स्वयं से, तो भला क्यों।
कौन अनजाना बुलाता आन सुख लेले।।
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पीर ही थाती हमारी बन गयी थी पर।
आप की मुस्कान ने हर दर्द है छीना।।
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हर चमन के फूल मसले शूल से खेले।
हम रहे अब तक महज संसार में ढेले।।
नेह के हर बोध से अनजान जीवनभर।
वासना की कोख में नित क्या नहीं झेले।।
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थे समझ पाये नहीं सच बिन तुम्हारे ये।
वासना औ' प्रीत में अन्तर बहुत झीना।।
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हो गये थे लोक में पाषाण जैसे हम।
भूल बैठी थी हमारी आँख होना नम।।
थे शिखर पर किन्तु यश से हीन जैसे।
हो गया ऊँचा हमारा आप से परचम।।
*
आपकी मनुहार से ही जिन्दगी में हम।
सीख पाये मुश्किलों से प्रेम रस पीना।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई जैफ जी, हार्दिक आभार।
आ. लक्ष्मण सर, बहुत ख़ूब। वाह।
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