खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।
हैं अधर पर प्यास के अंगार आ जाओ।।
*
नित्य बदली छोड़ कर अम्बर।
बैठ जाती आन पलकों पर।।
धुल न जाये फिर कहीं शृंगार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
शूल सी चंचल हवाएँ सब।
हो गयीं नीरस दिशाएँ सब।।
है बहुत सूना हृदय संसार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
हो गयी बोझिल पलक जगते।
आस खंडित आस नित रखते।।
कौल को अब कर समन्दर पार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
हो गयी जैसे सदी बिछड़े।
दूरियों से सुख हुए दुखड़े।।
फिर मनायेंगे मिलन त्यौहार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
स्नेह का ना हो गुणनफल कम।
फिर कहीं बाधा न हो मौसम।।
हर बहाने को मिला इतवार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
प्रेमधन के जो रहे साधक।
कौन निर्धनता बनी बाधक।।
बाँह करके नौलखा सा हार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
अब पिघल हिमनद गये देखो।
दिख रहे सब पथ नये देखो।।
भाग्य ने भी अब तजी है रार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई महेंद्र जी, हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। "निमोही" शब्द के बहाने आपकी उपस्थिति से बहुगुणित लाभ हुआ।
//शूल सी चंचल हवाएँ हैं। हो गयीं नीरस दिशाएँ हैं। ................. देखिएगा.. // यहाँ निश्चित तौर पर हैं के बदलाव से प्रभाव अत्यधिक बढ़ा है।
//
फिर मना पाएँ मिलन-त्यौहार आ जाओ। .... देखिएगा.. //
मना पायें का प्रयोग अधिक सकारात्मक भाव पैदा कर रहा है। और गेयता भी बढ़ी है।
*
//स्नेह का मत हो गुणनफल कम। ....... गीत को गेय कविता का कलेवर न दें .. // निश्चित तौर पर शब्दों के चयन का ध्यान रखूँगा।
//हर घड़ी को हम करें इतवार आ जाओ ......... देखिएगा.. //
हर बहाने को मिला इतवार " में बहानों को तजने का भाव लेकर लिखा था, किन्तु आपने इतवार को फुरसत के पल के रूप में निरूपित कर सकारात्मकता दे दी जो अधिक प्रभावशाली है।
*
//मानते कब कौन पल बाधक ? //
इस बदलाव से प्रभाव निश्चित बहुगुणित हुआ है।
*
//द्वंद्व के हिमनद गये देखो। दिख रहे हैं पथ नये देखो।।//
ये बदलाव भी प्रभावशाली हैं। इस मार्गदर्शन के लिए असीम हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी रचना के माध्यम से आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी के सार्थक शब्द सुनने को मिले। इस हेतु आपको एक बार पुनः बधाई।
इस गीत के निमोही शब्द पर चर्चा हो रही है.
मूलतः हिन्दी के अथवा स्पष्टतः आंचलिक भाषाओं के गीतों का मूल स्वर विरह से विह्वल पात्रों, विशेषकर नायिका, का भावोद्वेग रहा है. प्रस्तुत गीत में भी दैहिक भाव-भावना के उत्कट प्रकटीकरण का मुखर शब्दांकन हुआ है. इस कारण गीत का भाव पक्ष तरल है. ऐसे में कमनीय देसज शब्दों का प्रयोग अरसे से होता रहा है. यहाँ भी हुआ है.
एक तथ्य यह भी है, कि कवि सार्थक, संवेदनापूर्ण कर्म के क्रम में शब्दों के अर्थ से ही नहीं उनकी बनावट से भी खेलने लगता है. यह कविता-कर्म की अत्युच्च दशा है. सक्षम गीतकार तत्सम शब्दों का भी तरलीकरण कर लेते हैं. इसी कारण आदरणीय लक्ष्मण धामी जी को निमोही जैसा शब्द मिल गया, जिसका उन्होंने सहज प्रयोग कर लिया.
ऐसा एक समय के बाद हम-आप भी तो अनायास करने लगते हैं. ऐसे में गीति-प्रतीतियों में निमोही का शब्द स्वीकार्य है.
प्रस्तुत रचना की कई उपमाएँ, व्यंजनाएँ, लाक्षणाएँ अभिभूत कर रही हैं. मैं मुग्ध हूँ.
किन्तु, प्रस्तुति अवश्य ही तनिक और समय की मांग कर रही है. ऐसा होना तनिक अन्यथा नहीं है, कि, ओबीओ परस्पर सीखने-सिखाने के लिए मंच ही तो प्रदान करता है. इसी दायित्वबोध के कारण आपनी समझ से मैं कतिपय पंक्तियों में हल्के-हल्के परिवर्तन कर अर्थबोध को सान्द्र करने का प्रयास कर रहा हूँ. विश्वास है, आदरणीय लक्ष्मण जी इसे अन्यथा न लेंगें.
वस्तुतः, गीतों में लयता और इसकी तान अंतर्निहित होती है. अतः पदांत स्वरमूलक गुरु वर्ण का हो तो इनका लालित्य (सांगीतिक पक्ष) बहुगुणित हो जाता है. इस हिसाब से पदांत में ’सब’ का प्रयोग अनगढ़ न होते हुए भी खटकता है.
लेकिन मजा देखिए, वहीं ’अम्बर-पर’, ’कम-मौसम’ या ’साधक-बाधक’ चल जाते हैं.
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।
हैं अधर पर प्यास के अंगार आ जाओ।। ........ उद्विग्न प्रत्याशा का कमनीय शब्दांकन हुआ है... वाह वाह !
*
नित्य बदली छोड़ कर अम्बर।
बैठ जाती आन पलकों पर।।
धुल न जाये फिर कहीं शृंगार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।। ....... क्या बात है ! क्या बात है ! बार-बार इन पंक्तियों को पढ़ने का लोभ कोई संवरण कैसे न करे !
*
शूल सी चंचल हवाएँ हैं।
हो गयीं नीरस दिशाएँ हैं।। ................. देखिएगा..
है बहुत सूना हृदय-संसार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
हो गयी बोझिल पलक जगते।
आस खंडित आस नित रखते।।
कौल को अब कर समन्दर पार आ जाओ। ..... टेक का नैरंतर्य श्लाघनीय है, आदरणीय.
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
हो गयी जैसे सदी बिछड़े।
दूरियों से सुख हुए दुखड़े।।
फिर मना पाएँ मिलन-त्यौहार आ जाओ। .... देखिएगा..
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
स्नेह का मत हो गुणनफल कम। .................. गीत को गेय कविता का कलेवर न दें ..
फिर कहीं बाधा न हो मौसम।।
हर घड़ी को हम करें इतवार आ जाओ ......... देखिएगा..
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
प्रेमधन के जो रहे साधक।
मानते कब कौन पल बाधक ?
बाँह करके नौलखा-सा हार आ जाओ। ......... वाह वाह वाह ! .. लाक्षणा का अद्भुत रूप निखर आया है
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
द्वंद्व के हिमनद गये देखो।
दिख रहे हैं पथ नये देखो।।
भाग्य ने भी अब तजी है रार आ जाओ। ......... निवेदन को सुंदरता से साधा है, आपने. वाह !
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.
शुभातिशुभ
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आ. भाई महेन्द्र जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
निमोही शब्द निर्मोही के अपभ्रंश के रूप में रमेश रंजक जी के गीतों में प्रयुक्त हुए देखा था। इसी आधार पर प्रयोग किया है। शेष पूर्ण प्रकाश आ. सौरभ भाई डाल सकते हैं । पहले मैं भी अमोही शब्द ही प्रयोग करना चाह रहा था पर निमोही अधिक आकर्षक लगा। आ. भाई सौरभ पांडेय जी की राय के बाद ही कुछ किया जायेगा...
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
निमोही शब्द निर्मोही के अपभ्रंश के रूप में रमेश रंजक जी के गीतों में प्रयुक्त हुए देखा था। इसी आधार पर प्रयोग किया है। शेष पूर्ण प्रकाश आ. सौरभ भाई डाल सकते हैं । सादर...
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और आपके प्रशंसाभरे शब्दों से लेखन सफल हुआ। आपके अनुमोदन से गीत लेखन का उत्साह बढ़ा है। स्नेह के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, अच्छा गीत रचा है आपने, बधाई स्वीकार करें I
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