२१२२/२१२२/२१२२
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मत कहो अब मन खँगाला जा रहा है
इस वतन से बस उजाला जा रहा है ।१।
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फिर दिखेगा मौत का मन्जर वृहद ही
कह सुधा नित विष उबाला जा रहा है।२।
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आसमाँ को बाँटने की हो न साजिस
जो भी नारा अब उछाला जा रहा है।३।
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हस्र क्या होगा उन्हें भी ज्ञात होगा
जानकर जब साँप पाला जा रहा है।४।
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बँट रहा नित किन्तु सब के पेट खाली
पास किस के फिर निवाला जा रहा है।५।
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मान मर्दन के सिवा कुछ भी नहीं यह
जिन के हाथों से शिवाला जा रहा है।६।
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कब्र को सदियों सँभाला पूछते अब
जिन्न उससे क्यों निकाला जा रहा है।७।
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सूखने के हैं नहीं आसार कुछ भी
मट्ठा जिसकी जड़ में डाला जा रहा है।८।
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मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण शामी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें I
'फिर दिखेगा मौत का मन्जर वृहद ही'---इस मिसरे में 'मन्जर' को "मंज़र" कर लें I
'आसमाँ को बाँटने की हो न साजिस'--- इस मिसरे में 'साजिस' को "साज़िश" कर लें I
'हस्र क्या होगा उन्हें भी ज्ञात होगा'----इस मिसरे में 'हस्र ' को "हश्र" कर लें I
आ. राखी जी, अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बहुत सार्थक सृजन आदरणीय
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