२१२/२१२/२१२/२१२
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राह में शूल अब तो बिछाने लगे
हाथ दुश्मन से साथी मिलाने लगे।१।
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जो अघाते न थे कह सहारे हमी
गाल वो भी दुखों में बजाने लगे।२।
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दुश्मनों की जरूरत हमें अब कहाँ
जब स्वयं को स्वयं ही मिटाने लगे।३।
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हाथ सबका ही तोड़े यहाँ फूल को
सोच माली भी काँटे उगाने लगे।४।
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बात उसको बता कर्म की साथिया
सेज सपनों की जो भी सजाने लगे।५।
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वोट पाने की खातिर कभी रोये जो
दुख हमारे ही उन को बहाने लगे।६।
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था गरीबी का आलम भले ही वहाँ
गाँव फिर भी नगर से सुहाने लगे।६।
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अन्न खेतों का ऐसे रुआँसा हुआ
सूखी छाती जो बादल दिखाने लगे।७।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई जैफ जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए धन्यवाद।
अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद मुसाफिर सर, सादर
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
अरकान आपने ग़लत लिख दिए हैं उन्हें:-
212 212 212 212 कर लें ।
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