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सज़ा तय हुई है ख़ता के बग़ैर
गला जाएगा अब रज़ा के बग़ैर
मेरे सब्र की इंतिहा देखिए
शिफ़ा चाहता हूँ दवा के बग़ैर
तेरे दाम-ए-तज़्वीर की ख़ैर हो
रिहा हो गया हूँ क़ज़ा के बग़ैर
तेरी बेवफ़ाई प कबतक जियूँ
कभी इश्क़ कर ले दग़ा के बग़ैर
अजब रस्म-ए-दुनिया है क़ाबिज़ यहाँ
न कुछ भी मिले इल्तिजा के बग़ैर
अना से छुटा तो ख़याल आया है
मैं कुछ भी नहीं हूँ ख़ुदा के बग़ैर
अलग है समाँ ख़ुद-सरी का मेरी
सुधरता नहीं हूँ सज़ा के बग़ैर
तेरे बिन नहीं आ रही साँस तक
दिया बुझ रहा है हवा के बग़ैर
ख़सारा बहुत है मुहब्बत में 'ज़ैफ़'
न करियो ये सौदा नफ़ा के बग़ैर
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
बढ़िया ग़ज़ल कही भाई जैफ...बधाई
उस्ताद-ए-मुहतरम समर जी, बेहद नवाज़िश। सर जी, सुधार का प्रयास करता हूँ। सादर।
जनाब ज़ैफ़ जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'अलग है समाँ ख़ुद-सरी का मेरी
सुधरता नहीं हूँ सज़ा के बग़ैर'
ऊला के हिसाब से सानी में 'सुधरता नहीं' की जगह "नहीं सुधरूँगा" वाली बात होनी चाहिए, ग़ौर करें ।
'न करियो ये सौदा नफ़ा के बग़ैर
इस मिसरे का क़ाफ़िया ठीक नहीं क्योंकि सहीह शब्द "नफ़'अ'' 21 है ।
मुहतरमा सुधा जी, बेहद शुक्रिया आपका।
यमित जी बहुत शानदार बधाइयां स्वीकार करें
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