इस तमस की खोह में आ चाँद भूले से कभी तो
गीत गा दो तुम सुरीला, वेदना को भूल जाऊँ।
*
जब नगर हतभाग्य से आ खो गये हैं गाँव मेरे
हर कदम पर चोट खाकर पथ विचलते पाँव मेरे।।
तोड़कर सँस्कार सारे छू रहे प्रासाद तारे
धूप से भयभीत मन है पग जलाती छाँव मेरे।।
सभ्यता की रीत कोई भौतिकी गढ़ती नहीं है
आत्ममंथन कर लचीला, वेदना को भूल जाऊँ।
*
जन्म पर जो भी तनिक थी, तात की पहचान खोई
बन सका है भर जगत में, आज भी परिचय न कोई।।
भोर का तारा तो छोड़ो, साँन्य का दीपक नहीं हूँ
सून्य सा जीवन समूचा, सोच कर यह आँख रोई।।
ओ! पवन आँसू सुखा दे आन बैठे जो पलक पर
हो न आँचल और गीला वेदना को भूल जाऊँ।
*
है नहीं पाथेय कुछ भी पर लुटेरे घात करते
पास है विश्वास जो भी जा रहे वो नित्य हरते।।
आ रहा परिणाम जैसा, देखकर मन कसमसाता
हैं बहुत सहचर मगर सब आप से ही आप डरते।।
खोलनी थी गाँठ मन की, पर न खोली है किसी ने
तुम करो आ छोर ढीला, वेदना को भूल जाऊँ।
*
कंठ रुँधता जा रहा अब, आ रहा है काल देखो।
देह खंडित पर युवा मन, तीव्र चलता चाल देखो।।
कामना थी सूर्य सी हो, कांति लेकिन हो न पाया
भर नगर में बात फैली, है मलिन यह भाल देखो।
कामना अंतिम प्रहर में शेष है भी तो करूँ क्या
स्वप्न टूटा सुख सजीला वेदना को भूल जाऊँ।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई वृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत आपको अच्छा लगा जानकर हर्ष हुआ। स्नेह के लिए आभार।
वाह आदरणीय धामी जी...बड़ा ही सुंदर गीत हुआ...बधाई
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गीत आपको अच्छा लगा लेखन सफल हुआ। हार्दिक धन्यवाद।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, अच्छा गीत हुआ है, बधाई स्वीकार करें I
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