जिस वसंत की खोज में, बीते अनगिन साल
आज स्वयं ही आ मिला, आँगन में वाचाल।१।
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दुश्मन तजकर दुश्मनी, जब बन जाये मीत
लगते चहुँ दिश गूँजने, तब बसन्त के गीत।२।
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आँगन में जिस के बसा, बालक रूप वसन्त
जीवन से उसके हुआ, हर पतझड़ का अन्त।३।
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कहने को आतुर हुए, मौसम अपना हाल
वासन्ती संगत मिली, हुए मूक वाचाल।४।
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करने कलियों को सुमन, आता है मधुमास
जिसके दम पर ही मिटे, हर भौंरे की प्यास।५।
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आस बँधा कर पेड़ को, हवा रही झकझोर
आयेगी यूँ दुख न कर, फिर वासन्ती भोर।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
प्रिय धामीजी जी,
सादर वन्दे, सुन्दर रचना, वसंत को "वाचाल" अनूठी उपमा दी है, अभी पूरा आनन्द ले नहीं पाया हूँ पर छंद ४ पर मुहर लगा कर अच्छा किया. लगता है रचना अभी शेष है.
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन एवं त्रुतटियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, अच्छे दोहे रचे आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'आगन में जिस के बसा, बालक रूप वसन्त''
आगन--"आँगन"
'आस बधा कर पेड़ को, हवा रही झकझोर'
बधा--'बँधा'
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