221-1221-1221-122
हालाँकि किया आपने इज़हार नहीं है
ये बात समझना कोई दुश्वार नहीं है
अब छोड़िए इज़हार भी दरकार नहीं है
"ख़ामोश है लब पर कोई तकरार नहीं है
मैं जान गया हूँ तुझे इंकार नहीं है"
ये बात अलग है कि दिल-ओ-जान से चाहूँ
पाने को तुम्हें जान मैं क्या कुछ नहीं कर दूँ
ये भी है हक़ीक़त कि कभी होगा नहीं यूँ
"मैं बेच के ग़ैरत को तेरा प्यार ख़रीदूँ
इस बात पे राज़ी दिल-ए-ख़ुद्दार नहीं है"
भाती है ग़ज़ल सब को, जो भाता हो ग़ज़ल को
जो सीखता हो और सिखाता हो ग़ज़ल को
जो ओढ़ता हो और बिछाता हो ग़ज़ल को
"जो ख़ून-ए-जिगर अपना पिलाता हो ग़ज़ल को
ऐसा तो यहाँ कोई भी फ़ंकार नहीं है"
देखोगे जिधर आपको ऐसा ही लगेगा
मुझ को है ये डर आप को ऐसा ही लगेगा
कुछ तो है कसर आप को ऐसा ही लगेगा
"सब कुछ है मगर आपको ऐसा ही लगेगा
इस मुल्क में जैसे कोई सरकार नहीं है"
'जम्मू' जी दिलों में ही वो रब सोता रहेगा
हाकिम भी इधर नफरतें ही बोता रहेगा
यूँ बोझ जहालत का बशर ढोता रहेगा
"ये खून खराबा तो ''समर" होता रहेगा
तालीम का जब तक कोई मैयार नहीं है"
(मौलिक व अप्रकाशित )
(गुरप्रीत सिंह जम्मू)
Comment
बहुत शुकिया आदरणीया रचना भाटिया जी। जी जो ग़ज़ल आप ने तज़मीन के लिए चुनी है, बहर वही रहेगी।
वाह वाह वाह वाह क्या कहने आदरणीय गुरप्रीत सिंह जी, बेहतरीन तज़मीन की है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
मैंने यह विधा पहली बार पढ़ी है। आपने कहा रदीफ़ क़ाफ़िया बदल सकते हैं क्या बह्र भी बदल सकते हैं? कृपया बताएँ।सादर।
बहुत शुक्रिया आदरणीय समर सर जी। ओ बी ओ पर आपकी पुरानी रचनाएं पढ़ते हुए आपके द्वारा पोस्ट की गईं तज़मीन पढ़ीं तो ख़ुद तज़मीन कहने की प्रेरणा मिली। और इसके लिए आपकी ग़ज़ल से बेहतर क्या विकल्प हो सकता था।तज़मीन आपको अच्छी लगी यह जानकर तसल्ली हुई।
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब, नाचीज़ की ग़ज़ल पर आपने अच्छी तज़मीन कही, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
दोस्तो ये मैने आदरणीय समर कबीर जी की ग़ज़ल पर तज़मीन कहने की कोशिश की है। आप कृपया बताएं कि कोशिश कैसी लगी। समर सर के शब्दों में
"तज़मीन"उर्दू शायरी की एक सिन्फ़् है जो आजकल देखने में नहीं आती,आप अपनी पसन्द के किसी शाइर की ग़ज़ल ले लीजिये,सबसे पहले मतला के सानी मिसरे पर तीन मिसरे कहिये उसी भाव में,फिर पहले शैर का ऊला मिसरे पर तीन मिसरे कहिये जो सानी पर चस्पाँ हो रहे हों,ऊला मिसरे पर मिसरा लगाने में रदीफ़ और क़ाफ़िया मज़कूर मिसरे को देखते हुए आप खुद तजवीज़ कर सकते हैं,और फिर इसी तरह मिसरे चस्पाँ करते जाइये,जिस ग़ज़ल की आप ताज़मीन कहें और उसमें मक़्ता है तो आपको भी अपने तीन मिसरों में से किसी एक में अपना तख़ल्लुस का इस्तेमाल करना लाज़मी है ।
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