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गीत(१९)- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव
भरी दुपहरी मिल जाती है, जहाँ पेड़ की छाँव।।
*
नगर हमेशा दुख देकर  ही, माने  अपनी जीत
आँगन चाहे एक नहीं पर, खड़ी बहुत हैं भीत
अपनों की तो बात अलग है, रही गाँव की रीत


किसी पराये का भी दुख में, सहला देता पाँव

अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
*
सकी माँगें नहीं असीमित, रोटी कपड़ा गेह
जिसे नगर सा नहीं ठाठ से, होता पलभर नेह
मन में सेवाभाव समेटे, थके न जिस की देह


भूखा प्यासा भले अपूरित, किन्तु नेह का ठाँव

अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
*
खेतों खलिहानों की रंगत, पनघट वाला ठौर
जनजन को हर्षित करता है, पुरवाई का दौर
कोयल, तोता, मोर नाचता, महक बिखेरें बौर


अतिथि आगमन का संदेशा, देती कर्कश काँव

अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
*
भूल भुलैया नहीं एक भी, कहीं नगर सी देख
दूर दूर तक सिर्फ खिंची है, पगडण्डी की रेख
ध्रुव सत्य सा अटल रहा है, इसके हित का लेख


सिर्फ नगर में हमने देखी, चलती फिरती छाँव

अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 26, 2023 at 9:34pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on February 26, 2023 at 2:24pm

जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, अच्छा गीत लिखा आपने, बधाई स्वीकार करें I 

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