अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव
भरी दुपहरी मिल जाती है, जहाँ पेड़ की छाँव।।
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नगर हमेशा दुख देकर ही, माने अपनी जीत
आँगन चाहे एक नहीं पर, खड़ी बहुत हैं भीत
अपनों की तो बात अलग है, रही गाँव की रीत
किसी पराये का भी दुख में, सहला देता पाँव
अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
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उसकी माँगें नहीं असीमित, रोटी कपड़ा गेह
जिसे नगर सा नहीं ठाठ से, होता पलभर नेह
मन में सेवाभाव समेटे, थके न जिस की देह
भूखा प्यासा भले अपूरित, किन्तु नेह का ठाँव
अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
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खेतों खलिहानों की रंगत, पनघट वाला ठौर
जनजन को हर्षित करता है, पुरवाई का दौर
कोयल, तोता, मोर नाचता, महक बिखेरें बौर
अतिथि आगमन का संदेशा, देती कर्कश काँव
अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
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भूल भुलैया नहीं एक भी, कहीं नगर सी देख
दूर दूर तक सिर्फ खिंची है, पगडण्डी की रेख
ध्रुव सत्य सा अटल रहा है, इसके हित का लेख
सिर्फ नगर में हमने देखी, चलती फिरती छाँव
अपनेपन में विद्व नगर से, अच्छा अनपढ़ गाँव।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, अच्छा गीत लिखा आपने, बधाई स्वीकार करें I
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