महावृक्ष बनकर लहराता
नफ़रत का पौधा
पत्ते हरे फूल केसरिया
लाल-लाल फल आते
प्यास लहू की लगती जिनको
आकर यहाँ बुझाते
सबसे ज्यादा फल खाने की
चले प्रतिस्पर्द्धा
किसमें हिम्मत इसे काट दे
उठा प्रेम की आरी
इसकी रक्षा में तत्पर है
वानर सेना सारी
कैसे-कैसे काम कराये
निरी अंधश्रद्धा
पंखों वाले बीज हुये हैं
उड़-उड़ कर जायेंगे
भारत के कोने-कोने में
नफ़रत फैलायेंगे
लोग लड़ेंगे
लोग मरेंगे
रोयेगी वसुधा
रोपा इसको राजनीति ने
लेकिन खाद और पानी
वो देते जिनके घर बैठी
रक्तकमल पर लक्ष्मी
जनता मूरख समझ न पाये
यह गोरखधंधा
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेंद्र कुमार सिंह जी आदाब, उत्कृष्ट रचना / नवगीत हेतु बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी और मिथिलेश वामनकर जी की प्रतिक्रिया और प्रशंसा से इस में और चार चाँद लग गये हैं, पुन: बधाई।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय Saurabh जी। आपके उत्साहवर्धन हेतु हृदयतल से आभारी हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय धर्मेन्द्र जी,
सहज कथ्य एवं सार्थक निर्वहन से यह नवगीत पठनीय बन पड़ा है।
तथा, विशिष्ट मनोदशा को शाब्दिक करती यह रचना अपने हेतु में सफल है।
हार्दिक बधाई स्वीकार करें, आदरणीय.
शुभ-शुभ
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, इस उत्कृष्ट नवगीत हेतु हार्दिक बधाई और आभार. प्रतीक अपने भावों को प्रेषित करने में सफल हुए. सादर
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