2211 -2211 -2211 -22
जाँ फिर से नुमूदार न हों ग़म के निशाँ और
आ चल कि चलें ढूँडें कोई ऐसा जहाँ और
दुनिया का सफ़र मुझ पे गिराँ होने लगा है
कहती है मेरी तब्अ' कि ठहरूँ न यहाँ और
आते हैं नज़र फिर से मुझे पस्ती के इम्कान
लगता है कि बाक़ी हैं अभी संग-ए-गिराँ और
भड़की हुई आतिश न बुझे ख़ून-ए-जिगर से
इस इश्क़ के दरिया में जले आब-रसाँ और
अब सहरा की लहरें नज़र आती हैं समंदर
बढ़ती ही चली जाती हैं ये तिश्नगियाँ और
ले आओगे बाज़ार से अशिया-ए-मजाज़ी
दुनिया में कहीं पा न सकोगे दिल-ओ-जाँ और
बातों में खनकती हुई मिसरी-सी घुले है
है जान-ए-वफ़ा आपका अंदाज़-ए-बयाँ और
कुछ तो है 'अमीर' आपकी बातों में भी जादू
'ग़ालिब' सा हुआ है न मगर सेह्र-बयाँ और
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