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दिलजले लगे हैं फिर घर नया बसाने में
रह गये हैं वो खुद पीछे हमें उठाने में
रतजगे कई होते दोस्त घर बनाने में
भारती बहा है खूँ फिर इसे बसाने में
राह भटके रहबर अब ख़ुदगर्ज़ हुए हैं वो
बेलगाम होकर याँ व्यस्त घर लुटाने में
बाँट कर हुकूमत ने साधे स्वार्थ अपने हैं
पर लगे ज़माने उसको हमें जगाने में
भुखमरी ग़रीबी हटती नहीं हटाने से
बढ़ रही अमीरी उल्टा उसे भगाने में
रोज़ी-रोटी में खटती ज़िन्दगी अभी भारत
अब लगी नशा-खोरी भी हमें मिटाने में
एक रोता हँसता वो दूसरा है दुनिया में
ग़ैर सी लगे बस्ती आज भी ज़माने में
प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. सुशील सरना साहब, ग़ज़ल की संस्तुति हेतु आपका आभार, श्री !
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