2122 1212 112/22
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ज़ीस्त का जो सफ़र ठहर जाए
आरज़ू आरज़ू बिख़र जाए
बेक़रारी रहे न कुछ बाक़ी
फ़िक्र का दौर ही गुज़र जाए
ख्व़ाब-सा रात-दिन पला दिल में
इश्क़ वह हो न ज़ख़्म-गर जाए
कोई तक़दीर से लड़े कैसे
ये नहीं नक़्श जो सँवर जाए
टूटते इश्क़ को बचाने में
डर है कोशिश न बे-असर जाए
बे-सबब जो किसी को चाहता हो
दिल से उसके अगर मगर जाए
खोल दो गाँठ जो अना की तुम
इत्र-सा दूर तक बिख़र जाए
ये नये दौर की मुहब्बत है
क्या पता कौन-सी डगर जाए
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मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, ग़ज़ल पर हुए मेरे प्रयास की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. आपके इंगित शे'र में मैं कहना चाह रहा था दिल में प्यार एक ख्व़ाब ही बना रह गया (मुक़म्मल नहीं हुआ) तो वह कहीं ज़ख्म देने वाला नहीं बन जाए. टंकण त्रुटियाँ मैं सुधारता हूँ. सादर
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'ख्व़ाब-सा रात-दिन पला दिल में
इश्क वह हो न ज़ख्म-गर जाए'
इस शे'र का भाव स्पष्ट नहीं हुआ, देखिएगा ।
कुछ टंकण त्रुटियाँ:-
इश्क--'इश्क़'
ज़ख्म--'ज़ख़्म'
बिख़र--'बिखर'
आवश्यक सूचना:-
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