तारकोल से लगा चिपकने
चप्पल का तल्ला
बिगड़े हैं सुर मौसम के अब
कहे स्वेद की गंगा
फागुन में घर बाहर तड़पे
हर कोई सरनंगा
दोपहरी में जेठ न तपता
ऐसे सौर तपाए
अपनी पीड़ा किसे बताए
नया-नया कल्ला
पेड़ों को सिरहाना देती
खुद उसकी ही छाया
श्वानो जैसी उस पर पसरे
आकर मानव काया
जो पेड़ों को काटे ठलुआ
बढ़कर धूप उगाए
अपनी गलती से वह भी तो
झाड़ रहा पल्ला
बाँझ दोपहर शाम विषैली
कैसे कदम बढ़ाएँ
जेठ तपेगा और भयंकर
कैसे खैर मनाएँ
छिपते-छिपते भी तो दिन अब
जाता है झल्ला।
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मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय अशोक रक्ताले जी, बहुत शानदार गीत हुआ है। तल्ला और कल्ला ने मुग्ध कर दिया।
जो पेड़ों को काटे ठलुआ
बढ़कर धूप उगाए
अपनी गलती से वह भी तो
झाड़ रहा पल्ला। ...बहुत खूब
अपनी पीड़ा किसे बताए
नया-नया कल्ला... वाह
इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर
आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तूत रचना पर उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत-बहुत आभार। सादर
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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