दोहा पंचक. . . . . मेघ
हाथ जोड़ विनती करे, हलधर बारम्बार।
धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।
अवनी से क्यों रुष्ट हो, जलधर बोलो आज ।
हलधर बैठा सोच में, कैसे उगे अनाज ।।
अम्बर के हर मेघ में, हलधर की है आस ।
बिन जलधर कैसे मिटे, तृषित धरा की प्यास ।।
सावन में अठखेलियाँ, नभ में करे पयोद ।
धरा तरसती वृष्टि को, मेघा करते मोद ।।
श्वेत हंस की टोलियाँ, नभ में उड़े स्वछंद ।
धूप - छाँव का हो रहा, ज्योँ आपस में द्वन्द्व ।।
सुशील सरना/22-7-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं हार्दिक बधाई।
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