सौदेबाजी रह गई, अब रिश्तों के बीच ।
सम्बन्धों को खा गई, स्वार्थ भाव की कीच ।।
रिश्तों के माधुर्य में, आने लगी खटास ।
धीरे-धीरे हो रही, क्षीण मिलन की प्यास ।।
मन में गाँठें बैर की, आभासी मुस्कान ।
नाम मात्र की रह गई, रिश्तों में पहचान ।।
आँगन छोटे कर गई, नफरत की दीवार ।
रिश्तों की गरिमा गई, अर्थ रार से हार ।।
रिश्ते रेशम डोर से, रखना जरा सँभाल ।
स्वार्थ बोझ से टूटती, अक्सर इनकी डाल ।।
सच्चे मन से जो करे, रिश्तों से निर्वाह ।
उसकी भी रिश्ते करें, जीवन में परवाह ।।
हर रिश्ते को दीजिये, अपना थोड़ा वक्त ।
निश्चित होगा आप पर, हर रिश्ता आसक्त ।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय
रिश्तों की महत्ता और उनकी मुलामियत पर सुन्दर दोहे प्रस्तुत हुए हैं, आदरणीय सुशील सरना जी.
हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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