दोहा षष्ठक. . . . आतंक
वहशी दरिन्दे क्या जानें , क्या होता सिन्दूर ।
जिसे मिटाया था किसी , आँखों का वह नूर ।।
पहलगाम से आ गई, पुलवामा की याद ।
जख्मों से फिर दर्द का, रिसने लगा मवाद ।।
कितना खूनी हो गया, आतंकी उन्माद ।
हर दिल में अब गूँजता,बदले का संवाद ।।
जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव ।
अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं अलाव ।।
भारत ने सीखी नहीं, डर के आगे हार ।
दे डाली आतंक को ,खुलेआम ललकार ।।
कर देंगे आतंक के, मंसूबे सब ढेर ।
गीदड़ बन कर भागते , देखे ऐसे शेर ।।
सुशील सरना / 26-4-25
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