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ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 

जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते

तो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते

*

न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिर

न ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते

*

ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारे

जो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते

*

फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी

जो बाँहों के साँपों को भी जान लेते

*

न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र

दुरुस्त हम अगर सारे अरकान लेते

*

"अमीर'' ऐसे सर को न धुनते कभी हम

गर आबा-ओ-अज्दाद की मान लेते

" मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 1, 2025 at 11:27am

मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर बागपतवी साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, सादर बधाई

कृपया ध्यान दे...

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