हे पिया, तू अब तो आजा
पुरवा ने ली अंगड़ाई l
सिहर उठा ये तन मन मोरा
है बरखा बहार आई ||
काँप रहा तन ये अपना
बज रहा यूँ ही कंगना |
तनहा तनहा जीते जीते
अब आँख है भर आई ||
हे पिया, तू अब तो आजा
पुरवा ने ली अंगड़ाई ll
सज गए सभी नज़ारे
तन पे गिर रही फुहारें |
धीरे धीरे रुक रुक के
अब तो चल रही पुरवाई ||
हे पिया, तू अब तो आजा
पुरवा ने ली अंगड़ाई ll
उमड़ घुमड़ बादल आये
मन में प्यास जगाये |
सिहर सिहर यूँ ठहर ठहर
अब तन में आग लगाई ||
हे पिया, तू अब तो आजा
पुरवा ने ली अंगड़ाई l
सिहर उठा ये तन मन मोरा
है बरखा बहार आई ll
अतेन्द्र कुमार सिंह "रवि"
Comment
अत्येंद्र जी, सावन का मौसम है ही कुछ ऐसा जो साथी की जुदाई का दर्द और भी बढ़ा देता है, उसपर ये बरखा...वोह , बहुत ही खुबसूरत रचना, बधाई स्वीकार करे |
is बरखा के mausam में एक birhini के मनोभाव को प्रदर्शित किया है आपने,
एक सुन्दर rachna hetu bahut bahut badhai|
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