हम करते रहे खेतों में अनवरत काम
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान'
भोर हुई कि चल पड़े डूबके अपने रंग
ले हल कांधो पे और दो बैलों के संग
बहते खून पसीना तज कर अपने मान
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान' ---१
हैं उपजाते अन्न सब मिलकर खेतों में हम
फिर भी मालियत पे इसके हैं अधिकार खतम
सबकुछ समझ कर भी हम बनते है नादान
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान' ---२
भूखे हैं हमसब या अपना है पेट भरा
हैं देखने आते हमको, यहाँ कौन जरा
बस ''रवि'' के संग हमसब देते हैं अंजाम
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान' ---३
अतेन्द्र कुमार सिंह 'रवि'
Comment
अच्छा प्रयास बना है. शुभकामनाएँ..
खुबसूरत रचना, मुझे लगता है कि इसे चित्र से काव्य प्रतियोगिता में पढ़ चूके है |
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