कविता- अनुभूत पपड़ियों का महाकाव्य !
सोचना उन भाईयों की जिनकी बहने नहीं हैं
हो सके तो सोचना उन पुत्रों की जिनकी माएं भी नहीं
सोचना क्या मायने होते होंगे रिश्तों के उनके लिए |
कभी सोचना उनकी जिनकी होली दिवाली नहीं होती
जो जी चुराते हैं समाज और समाज के समाजवाद से
जिनके लिए कोइ अर्थ नहीं किसी के होने या खोने का
सूखे कबके जिनके आंसू
अब तकिये नहीं भींगते किसी रात क्योंकि आदत सी हो गयी है
बिना रिश्तों के लिहाफ के खुली छत को निहारने की
और जिनके चाँद तारे रोज़ ही ढंके होते हैं काले बादलों की ओट में
सोचना क्यों कुछ लोग लिखते हैं एकांत की कवितायें
क्यों करते हैं बातें साम्यवाद और सर्वहारा वर्ग की
क्यों उन्हें भाते हैं गोर्की चे-गवेरा और ईसा के वृत्तांत
क्यों गढ़ते हैं वे सलीब अपनी हर रात हर दिन के लिए
और क्यों खाते हैं अपने सीने पर बोलियों की गोली
सोचना क्योंकि ऐसा हर व्यक्ति लिखता नहीं कवितायें
और लिखता तो तुम तक पहुंचा नहीं पाता
सोचना क्योंकि मुश्किल होता है राग में विराग का गान
इस भान के साथ कि शायद इसे असामयिक भी समझ लिया जाए
या मखौल भी बन जाए इसका
क्योंकि हर केक्टस में फूल नहीं खिलते
और नखलिस्तान में कोई एक ही होता है कवि
जो लिखता है अपने लहू से अनुभूत पपड़ियों का महा काव्य |
-- अभिनव अरुण
Comment
क्योंकि हर केक्टस में फूल नहीं खिलते
और नखलिस्तान में कोई एक ही होता है कवि
जो लिखता है अपने लहू से अनुभूत पपड़ियों का महा काव्य |
बहुत खूब अभिनवजी, उत्कृष्ट प्रस्तुति. साधुवाद.
प्रश्नों के प्रस्तुत समूह पर निरुत्तर होना इन प्रश्नों की आवृति और उनकी गंभीरता का अनुमोदन है.
बहुत खूब.. शुभेच्छा
प्राकृतिक रूप से ह्रदय से निकलते भाव जिसमे कोई बनावट नहीं, कोई मिलावट नहीं, कोई सजावट नहीं, बिलकुल स्वाभाविक अभिव्यक्ति हेतु बहुत बहुत बधाई अभिनव अरुण जी |
गुरु जी साधुवाद !! आभारी हूँ उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए !!!
हो सके तो सोचना उन पुत्रों की जिनकी माएं भी नहीं
सोचना क्या मायने होते होंगे रिश्तों के उनके लिए |
कभी सोचना उनकी जिनकी होली दिवाली नहीं होती
जो जी चुराते हैं समाज और समाज के समाजवाद से
जिनके लिए कोइ अर्थ नहीं किसी के होने या खोने का
sir har ek sabd apne aap kuchh kah rahe hain
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