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कविता- अनुभूत पपड़ियों का महाकाव्य !

कविता-  अनुभूत पपड़ियों का महाकाव्य !

 

सोचना उन भाईयों की जिनकी बहने नहीं हैं

हो सके तो सोचना उन पुत्रों की जिनकी माएं भी नहीं

सोचना क्या मायने होते होंगे रिश्तों के उनके लिए |

कभी सोचना उनकी जिनकी होली दिवाली नहीं होती

जो जी चुराते हैं समाज और समाज के समाजवाद से

जिनके लिए कोइ अर्थ नहीं किसी के होने या खोने का

सूखे कबके जिनके आंसू

अब तकिये नहीं भींगते किसी रात क्योंकि आदत सी हो गयी है

बिना रिश्तों के लिहाफ के खुली छत को निहारने की

और जिनके चाँद तारे रोज़ ही ढंके होते हैं काले बादलों की ओट में

सोचना क्यों कुछ लोग लिखते हैं एकांत की कवितायें

क्यों करते हैं बातें साम्यवाद और सर्वहारा वर्ग की

क्यों उन्हें भाते हैं गोर्की चे-गवेरा और ईसा के वृत्तांत

क्यों गढ़ते हैं वे सलीब अपनी हर रात हर दिन के लिए

और क्यों खाते हैं अपने सीने पर बोलियों की गोली

सोचना क्योंकि ऐसा हर व्यक्ति लिखता नहीं कवितायें

और लिखता तो तुम तक पहुंचा नहीं पाता

सोचना क्योंकि मुश्किल होता है राग में विराग का गान

इस भान के साथ कि शायद इसे असामयिक भी समझ लिया जाए

या मखौल भी बन जाए इसका

क्योंकि हर केक्टस में फूल नहीं खिलते

और नखलिस्तान में कोई एक ही होता है कवि

जो लिखता है अपने लहू से अनुभूत पपड़ियों का महा काव्य  |

                                                 -- अभिनव अरुण

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on August 14, 2011 at 11:26am
 आभार सतीश जी ! आपकी टिप्पणी मेरे लिए हौसले से कम नहीं !
Comment by satish mapatpuri on August 14, 2011 at 2:14am

क्योंकि हर केक्टस में फूल नहीं खिलते

और नखलिस्तान में कोई एक ही होता है कवि

जो लिखता है अपने लहू से अनुभूत पपड़ियों का महा काव्य |

बहुत खूब अभिनवजी, उत्कृष्ट प्रस्तुति. साधुवाद.

Comment by Abhinav Arun on August 13, 2011 at 3:48pm
आपके इस अनुमोदन के लिए आभार आदरणीय श्री सौरभ जी |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 13, 2011 at 3:06pm

प्रश्नों के प्रस्तुत समूह पर निरुत्तर होना इन प्रश्नों की आवृति और उनकी गंभीरता का अनुमोदन है.

बहुत खूब.. शुभेच्छा

 

Comment by Abhinav Arun on August 13, 2011 at 12:15pm
आभार गणेश जी बागी जी कविता आपको पसंद आयी लेखन सार्थक  हुआ  | सही कहा यह सामयिक सन्दर्भों का विरह गान है सहज और बिना  बनाव   श्रृंगार के ... नैसर्गिक |

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 12, 2011 at 9:36pm

प्राकृतिक रूप से ह्रदय से निकलते भाव जिसमे कोई बनावट नहीं, कोई मिलावट नहीं, कोई सजावट नहीं, बिलकुल स्वाभाविक अभिव्यक्ति हेतु बहुत बहुत बधाई अभिनव अरुण जी |

Comment by Abhinav Arun on August 12, 2011 at 8:05pm

गुरु जी साधुवाद !! आभारी हूँ उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए !!!

Comment by Rash Bihari Ravi on August 12, 2011 at 7:44pm

हो सके तो सोचना उन पुत्रों की जिनकी माएं भी नहीं

सोचना क्या मायने होते होंगे रिश्तों के उनके लिए |

कभी सोचना उनकी जिनकी होली दिवाली नहीं होती

जो जी चुराते हैं समाज और समाज के समाजवाद से

जिनके लिए कोइ अर्थ नहीं किसी के होने या खोने का

 

sir har ek sabd apne aap kuchh kah rahe hain 

 

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