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तुम कब जानोगे? भारत-पाक विभाजन की ६३वीं बरसी पर

तुम कब जानोगे?





तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों खून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूं धुऐं से भरी उन गलियों में
जिसे दौड कर पार करने में वह समर्थ न था.
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे.


दूषित नारों के व्यापारियों ने
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
जो ख्वाब तुम्हारी आंखों में भर दिये थे
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
उसके आधे परिवार के साथ...



मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
आखिर क्या हासिल हुआ तुम्हें
उन कथित नये नारों से
नया देश, नये रास्ते और नये इतिहास से
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
और मुशर्रफ़ तक जाता.
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल.
युद्ध,चन्द धामाके और बामियान में बुद्ध की हत्या.




तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं.

तुम कब जानोगे
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है.
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
पीछे छोड कर गये थे
वहां भी कभी कभी त्रिशूल का भय सताता है.
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है.

तुम कब जानोगे
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
जो विघटन का कारण बनी
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
जो लोग परस्पर हत्यायें कर रहे थे
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
कल-कारखाने चला सकते थे
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
संसार को बता सकते थे कि यह है
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान

तुक कब जानोगे
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
अधर में लटका है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को

तुम कब जानोगे
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
कबीर के दोहे, खुसरों की रुबाइयां
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
तुम कैसे समझोगे ?
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी

तुम कब जानोगे
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
अब खुद तुमसे मुक्त हो चुका है
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को

तुम कब जानोगे
कि अतीत असीम, अमर और अभाज्य है
वह सत्य की भांति पवित्र है
कब तक झुठलाओगे उसे
कितनी नस्लें और भोगेंगी
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
क्यों नहीं बताते उन्हें
कि हम सब एक ही थे
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
मोहन जोदाडो में
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
हमने ही बनाये थे
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएं
हम सब थे महाभारत
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें

तुम कब जानोगे
कि झूठ के पैर नहीं होते
झूठ को नहीं मिलती अमरता
तुम्हारे हर घर में रफी की आवाज़
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
कृष्ण की बांसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
और क्या हो सकता है

तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आँधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है.
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी माँग सकता है हिसाब
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि हम भी खतावार हैं
हमने भी चली हैं सियासी चालें
हमने भी तोडी हैं कसमें
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
समझनी है जिन्नाह की नादानी
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गये हैं
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिये
कि तुम लौट आओगे
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
मैनें जब से होश सम्भाला है
मैं भी यही दोहराता हूँ
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
वो भी सवाल करते हैं
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
पचास साठ बरस की अलहेदगी?
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
फ़िर आबाद हो गये हैं
वहाँ फ़िर से बस गये हैं
बचपन की किलकारियाँ,
जवानी की रौनक
और बुढा़पे का वैभव
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
और आम जामुन के पेड़
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
तुम्हें वापस आना होगा
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
तुम्ही तो छोडकर गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
साठ बरस पूर्व

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Comment

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Comment by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on August 28, 2010 at 11:17pm
सभी मित्रों, सुधी पाठकों एंव आलोचकों का मैं अभिवादन करता हूँ कि अपने व्यस्त समय में से कुछ क्षण मेरी कविता पर टिप्पणी करने में लगाये..ये क्षण और आपकी बातें, मौहब्बतें मुझे चैन से मरने देने का एक सबब देंगी...
सादर
Comment by Neelam Upadhyaya on August 16, 2010 at 2:39pm
बहुत ही सुन्दर और मार्मिक रचना है - मन को झकझोर कर रख देने वाली । स्वतंत्रता के 63 वें सालगिरह पर इससे बेहतर क्या हो सकता है । इस प्रस्तुती के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Comment by Pankaj Trivedi on August 16, 2010 at 8:22am
प्रिय भाई शम्स,
कल ये कविता नहीं पढ़ पाया, क्यूंकि इसे जल्दबाजी में पढ़कर.....
तुम कब जानोगे? - सत्य घटना के आधार पर कलम चलती है तो दिल से प्यार और नफ़रत का ज्वालामुखी फटता है और लावा बन जाती है स्याही ! बहुत ही गहराई से सोचने को मजबूर करती यह कविता हमारे अस्तित्त्व को, इंसान होने के दावे को चुनौती दे रही है, ऐसा लगता है | हम क्या है, क्या करना चाहिए...? यही खोज निरंतर अपने ही अन्दर होनी चाहिए |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 15, 2010 at 10:30pm
अंतर्मन को झकझोर देने वाली रचना....यही सत्य है|

शम्स सर आपका हार्दिक अभिनन्दन है इस परिवार में

आपको तथा आपके परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई|

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 15, 2010 at 7:02pm
एक बात कहने से रह गया..
’साठ’ की संख्या रह गई है. अब्बा हुज़ूर के साथ-साथ अम्मी भी कुछ और उम्र ओढ़ बैठी हैं..

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 15, 2010 at 6:58pm
यह उन रचनाओं में से एक है जिसने शमशाद को शमशादभाई बनाया हुआ है मेरे हृदय में.
इन पन्नों पर इस रचना को देख तोषभाव से संतृप्त हूँ. रचना का एक-एक टुकड़ा अपने आप में एक रचना है. जैसे -
तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं.

या,
तुम कब जानोगे
कि अतीत असीम, अमर और अभाज्य है
वह सत्य की भांति पवित्र है
कब तक झुठलाओगे उसे
कितनी नस्लें और भोगेंगी
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
क्यों नहीं बताते उन्हें
कि हम सब एक ही थे
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
मोहन जोदाडो में
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
हमने ही बनाये थे
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएं
हम सब थे महाभारत
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें

कमाल..! हमीं ने किया है सारा कुछ, रचा है, सहा है, जीया है. ..क्यों नहीं बताते? क्योंकि वज़ूद पर पाला पड़ने की नौबत आजाएगी.
शमशाद भाई आदाब. अब जीवन की ’गीता’ को चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ूँगा, पढ़वाऊँगा और आपसे ’शुक्रिया’ चाहूँगा. ..
Comment by Admin on August 15, 2010 at 12:33pm
आदरणीय शमशाद इलाही अंसारी "शम्स" जी, प्रणाम,
सर्वप्रथम स्वतंत्रता दिवस की बधाई स्वीकार करे, ओपन बुक्स ऑनलाइन के मंच पर आपके पहली रचना का ह्रदय से स्वागत है, अच्छी रचना प्रस्तुत की है आपने, आगे भी आपकी रचनाओं का इन्तजार रहेगा, इसी तरह मोहब्बत बनाये रखे, धन्यवाद,
Comment by sanjiv verma 'salil' on August 15, 2010 at 11:57am
मार्मिक रचना... मन करुणा से आप्लावित हो गया. नई पीढ़े को इस सचाई से वाकिफ करना ही होगा.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 15, 2010 at 11:07am
आदरणीय शमशाद इलाही अंसारी साहब जी, सर्वप्रथम तो मैं भी आपको स्वतंत्रता दिवस की बधाई देना चाहता हूँ तत्पश्चात स्वतंत्रता दिवस पर लिखी इस खुबसूरत और बेहतरीन रचना पर भी बधाई स्वीकार करे,बहुत ही उम्द्दा और सुंदर शब्दों से सुसज्जित शानदार रचना, बहुत बहुत धन्यवाद इस रचना पर,
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on August 15, 2010 at 11:04am
आज आज़ादी के 63 वें सालगिरह पर आपकी इतनी अच्छी रचना आई इससे ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार धन्य है,,...बहुत बहुत धन्य्बाद इतनी अच्छी रचना पोस्ट करने के लिए....

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