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मेरी हाँ

मेरी हाँ

कई दिनो से 
घर के बाहर 
चक्कर लगाते-लगाते
एक दिन अचानक वो
ठहरा, झिझकता हुआ बोला
मै डरते-डरते मुस्कुरा दी,

 
बात ही कुछ ऎसी थी
जो खास होते हुए भी

लगी कुछ खास सी
परन्तु उसे कुछ खास बनाने को
लालायित थी मै भी

 
मेरा समर्पण भी
नही था कुछ कम 
किन्तु,परन्तु,लेकिन 
शब्दों का जमावड़ा मिटा
बात बस हाँ की थी
और हाँ में ठहर गई


अब वो लगाता नही चक्कर
घर के बाहर 
घर में ही रहता है
परन्तु

मेरी आँखे तलाशती है
उन बोलती आँखों को 

आज भी

जो मेरे लिये 
कुछ भी कर सकने का
रखती थी जुनून
मेरी हाँ पाने के बाद
मगर आज 
किन्तु,परन्तु,लेकिन में लिपटकर

रह गई है--

 


 

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Comment by सुनीता शानू on September 17, 2011 at 12:03pm

धन्यवाद सौरभ जी।

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2011 at 6:04pm

रचना के कथ्य पर साधुवाद.

Comment by सुनीता शानू on September 15, 2011 at 5:37pm

गणेश जी आपने बिलकुल सही कहा है। जो चीज़ जब तक नही मिलती हम उसे पाने की हर कोशिश करते हैं। और मिल जाने के बाद निश्चिंत हो जाते हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद आपने मेरे विचारों को समझा।

Comment by सुनीता शानू on September 15, 2011 at 5:37pm

धन्यवाद कैलाश जी।आपको रचना पसंद आई।

 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 15, 2011 at 10:21am

शानू जी, आदर्श और वास्तविकता के मध्य महीन डोरी खीचने का कार्य आपने बाखूबी किया है, सब समय समय की बात है, जो नहीं मिलता उसके पीछे हम भागते है और जब मिल गया तो फिर वही...नया अध्याय प्रारंभ ..कुछ और जो नहीं मिल सका उसको पाने के भागम भाग में व्यस्त....

बेहद मार्मिक रचना, शानदार अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार करें |

Comment by Kailash C Sharma on September 14, 2011 at 3:22pm

मन की कशमकश को चित्रित करती बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..

कृपया ध्यान दे...

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