फिराक़ गोरखपुरी का असल नाम था रघुपति सहाय। 28 अगस्त 1896 को उत्तर प्रदेश के शहर गोरखपुर में पैदा हुए। उनके पिता का नाम था, बाबू गोरखप्रसाद और वह आस पास के इलाके के सबसे दीवानी के बडे़ वकील थे। रघुपति सहाय का लालन पालन बहुत ही ठाठ बाट के साथ हुआ था। 1913 में गोरखपुर के जुबली स्कूल से हाई स्कूल पास किया। इसके पश्चात इलाहबाद के सेंट्रल कालेज में दाखिला लिया। इंटरमीडेएट करने के दौरान ही उनकी मनमर्जी के विरूद्ध उनके पिता ने रघपति सहाय की शादी करा दी गई। यह विवाह उनकी जिंदगी में अत्यंत दुखप्रद और विनाशकारी साबित हुआ। इसी भयावह दुख से उनके अंदर का शायर एक नवीन आकार लेने लगा। शादी होने के बाद तकरीबन एक साल तक वह सो नहीं सके, न दिन में नाहि रात्रि में। वह पागल नहीं हो गए, इस पर वह खुद भी हैरान हुए। किंतु इस हालत में उनको संग्रहणी का रोग लग गया, जिसे बाद में एक वैद्य ने ठीक किया। इस शारीरिक और मानसिक परेशनी के हालत में वह अध्ययन,चिंतन और मनन के सागर में गोते लगाने लगे। बी ए की परीक्षा में विश्वविद्यालय में मेरिट लिस्ट में द्वितीय स्थान पर रहे। इसके पश्चात वह आईसीएस के इम्तहान में बैठे और डिप्टी कलक्टर के ओहदे के लिए चुन लिए गए। किंतु महात्मा गॉंधी के आव्हान पर सरकारी नौकारी पर लात मारकर असहयोग आंदोलन में कूद गए। असहयोग आंदोलन में तकरीबन डेढ बरस की जेल भुगती। जेल से छूटकर बाहर आए तो पं0 नेहरू ने राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यालय में अंडर सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया। पं0 नेहरू स्वयं उस वक्त कॉंग्रेस के सेक्रेटरी थे। इसी बीच रघुपति सहाय ने जोकि बतौर शायर अब फिराक़ गोरखपुरी के नाम से प्रख्यात हो चुके थे और फर्स्ट क्लास फर्स्ट के साथ एम ए इंग्लिश में कर चुके थे। बी ए करने के पश्चात 12 वर्षो तक वह कांग्रेस आंदोलन में बतौर फुल टाइमर सक्रिय रहे और बहुत ही गुरबत और संघर्ष में अपना वक्त गुजारते रहे। सन् 1930 में इलाहबाद विश्वविद्यालय में बतौर इंग्लिश प्राध्यापक नियुक्त हुए, जहॉं कि वह 1959 में रिटायर होने तक अध्यापन करते रहे।
फिराक़ का कहना रहा कि वास्तविक ज्ञान आंडबर और पाखंढ को चकनाचूर कर देता है। उनका एक शेर देखिए:
जाओ न तुम इस बेखबरी पर कि हमारे
हर ख़्वाब से इक अहद की बुनियाद पडी़ है।
उनका यह भी कहना रहा कि साहित्य हमारी चेतना की तपस्या है। यह ऐसी साधना है जिससें हमारी आत्मचेतना दिव्य बन जाती है। जीवन का काव्यात्मक और कलात्मक अनुभव हासिल करना और उसे दूसरो तक इस अनुभव को पहुंचाना साहित्य का एकमात्र मकसद है।
गज़ल के साज उठाओ बडी़ उदास है रात
सुना है पहले भी ऐसे ही बुझ गए हैं चराग़
दिलों की खैर मनाओ बहुत उदास है रात
कोई कहो ये खयालों से और
ख्वाबों से दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात
लिए हुए हैं जो बीते गमों के अफसाने
इस खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बहुत उदास है रात
वो जिंदगी ही बुलाओ बहुत उदास है रात
असाधारण विषयों को सुगम भाषा में स्वाभाविक शैली में कुछ इस तरह से उठाना कि काव्य की पंक्तियां सितारों को छूने लगे। बस यही फिराक़ की शायरी की खास बात बनी रही
चश्म ए सियह से घटा उठी है
मयखाने पर झूम पडी़ है
होते होते सुबह हुई है
कटते कटते रात कटी है
दुनिया में नफ्सी नफ्सी है
सबको अपनी अपनी पडी़ है
फिराक़ की कविता में कर्म के लिए उपदेश नहीं है, बल्कि कर्म अपनी सीमाओं में रहकर ही दिव्य बन जाता है। फिराक़ की शब्दावली प्राय: समाज में प्रचलित शब्दों से मिलकर बनी है। वह स्वयं ही कहते रहे कि करोडो़ की बोलचाल की भाषा को सुसंगठित करके ही कविता की भाषा बना करती है।
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तूझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
तूझे घाटा न होने देगें कारोबार ए उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
फिराक़ गोरखपुरी ने अपने जीवन काल में अत्यंत उद्देश्यपूर्ण शायरी की। उनकी गज़ल का एक टुकडा़ देखिए
हम वक़्त के सीने में इक शम्मा जला जाएं
सोई हुई राहों के जर्रो को जगा जाएं
कुछ रंग उडा़ जाए कुछ रंग जमा जाएं
इस दश्त को नग्मों से गुलजार बना जाएं
जिस सिम्त से गुजरे हम कुछ फूल ख्रिला जाएं
फिराक़ जंग ए आज़ादी के एक योद्धा रहे। उन्होने रोमांटिक शायरी के साथ ही फिराक़ ने इंकलाबी शायरी भी की।
सूरज चॉंद अंगडा़ई लेगें तारे अपनी गत बदलेगें
पवर्त सागर लहराएगें जब ये धरती करवट लेगी
कर्मयोग की महाशक्ति को हमने अपने साथ लिया है।
इस जीवन के शेष नाग को इन हाथों ने नाथ लिया है
फिराक़ क्योंकि खुद यूनिवर्सिटी में एक प्रोफेसर रहे। अत: नौजवानों के मध्य व्याप्त बेरोजगारी और तालीम की दिशाहीनता को लेकर अत्यंत क्षुब्ध रहे। उनकी बहुत मशहूर नज्म है ‘हिंद का हिंडोला’ जिसकी कुछ पक्तियां पेश हैं
हम उनको देते हैं बेजान और गलत तालीम
मिलेगा इल्म ए ज़हालतनुमा ये क्या उनको
निकल के मदरसों और यूनिवर्सिटी से
ये बदनसीब न घर के न घाट के होगें
मै पूछता हूं ये तालीम है या मक्का़री
करोडो़ जिंदगियों से ये बेपनाह दग़ा
जमीन ए हिंद का हिंडोला नहीं है बच्चों का
करोडो़ बच्चों का ये देश अब ज़नाजा़ है
हम इंक़लाब के ख़तरों से खूब वाकि़फ़ हैं
कुछ और यही रह गए लैलो निहार
तो मोल लेना ही पडे़गा हमे ये खतरा
कि बच्चे कौ़म की सबसे बडी़ अमानत हैं
फिराक़ को अपनी रचना गुल ए नगमा पर साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा़ गया। फिराक़ एक बेहद खुद्दार किस्म के शख़्स रहे, अपने स्वतंत्रता सेनानी होने अथवा पं0 नेहरू के साथ अपनी अत्यंत निकटता कदाचित कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठाया। यह अंदाज उनकी एक मशहूर गज़ल में झलकता फकी़र होकर भी मुझको मांगने में शर्म आती है
सवाली बन के आगे हाथ फैलाया नहीं जाता
मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मख़सूस होते हैं
ये वो नग़मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता
मार्च 1982 को उर्दू जबान का यह जबरदस्त शायर नश्वर संसार को अलविदा कह गया
वस्ल ओ हिज्रा के कुछ फसानों में
जिंदगी कट गई बहानों में
प्रभात कुमार रॉय
Comment
shayri ki duniya ke ek bade shakhs ke jiwan se hame parichit karwaya aapne. iske liye abhar. firak sahab ki kai chuninda panktiya bhi rakhi padhne hetu. ye lekh wakai rochak aur gyanwardhak hai.
फिराक गोरखपुरी जी के छुए अनछुए पहलुओं को यहाँ सबके बीच साझा करने हेतु आभार आपका |
फिराख गोरखपुरी सम्बन्धी ये लेख अच्छा लगा ,धन्यवाद आपका |
एक क्रांतिकारी शायर के बारे में बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी परक लेख | प्रभात ji को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं !!
फिराक साहब जैसा दूसरा कोई शायर इस २० वीं सदी में नहीं हुआ,,,
बहुत सुन्दर लेख है,,, हार्दिक बधाई
गुल ए नगमा पढ़ कर आनंदित हो गया था
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