कंधे पर मेरे एक अज़ीब सा लिजलिजा चेहरा उग आया है.. .
गोया सलवटों पड़ी चादर पड़ी हो, जहाँ --
करवटें बदलती लाचारी टूट-टूट कर रोती रहती है चुपचाप.
निठल्ले आईने पर
सिर्फ़ धूल की परत ही नहीं होती.. भुतहा आवाज़ों की आड़ी-तिरछी लहरदार रेखाएँ भी होती हैं
जिन्हें स्मृतियों की चीटियों ने अपनी बे-थकी आवारग़ी में बना रखी होती हैं
उन चीटियों को इन आईनों पर चलने से कोई कभी रोक पाया है क्या आजतक?..
सूनी आँखों से इन परतों को हटाना
सूखे कुएँ से पलट कर गूँजती कई-कई आवाज़ों का कोलाज बना देता है
कई-कई विद्रुप चेहरों / भहराती घटनाओं से अँटे इस कोलाज में बीत गये जाने कितने-कितने चेहरे उगते-मुँदते रहते हैं.
दीखता है.. . ज्यादा दिन नहीं बीते--
मेरे कंधे पर उग आये इस समय-बलत्कृत चेहरे के पहले
संभावनाओं के टूसे-सा एक मासूम-सा चेहरा भी होता था, ठोला-सा
फटी-फटी आँखों सबकुछ बूझ लेने की ज़द्दोज़हद में भकुआया हुआ ताकता --भोला-सा
बाबा की उँगलियाँ पकड़ उछाह भरा थप-थप चलता --लोला-सा ..
सोमवार का गंगा-नहान..
इतवार की चौपाल..
धूमन बनिया की दुकान.. बिसनाथ हजाम की पाट...
बुध-शनि की हाट.. ठेले की चाट.. .
...चार आने.. पउआऽऽऽ... पेट भरउआऽऽऽ... खाले रे बउआऽऽऽ .. !! ..
बँसरोपन की टिकरी..
बटेसर की लकठो..
उगना फुआ की कुटकी..
बोझन का पटउरा, शफ़्फ़ाक बताशे
हिनुआना की फाँक
जामुन के डोभे
दँत-कोठ इमली
टिकोरों के कट्टे
बाबा की पिठइयाँ
चाचा के कंधे.. घूम-घुमइयाँ..
खिलखिलाती बुआएँ, चिनचिनाती चाचियाँ
ओसारे की झपकी..
मइया की थपकी
कनही कहानियाँ --कहीं की पढ़ी, कुछ-कुछ जुबानियाँ.. .
साँझ के खेल
इस पल झगड़े, उस पल मेल
ओक्का-बोका, तीन-तड़ोका / लउआ-लाठी.. चन्दन-काठी..
घुघुआ मामा.. नानी-नाना.. .
नीम की छाया, कैसी माया / इसकी सुननी, उसको ताना..
आऽऽऽऽऽह... आह ज़माना ! ..
कंधे-गोदी, नेह-छोह
मनोंमन दुलार.. ढेरम्ढेर प्यार
निस्स्वार्थ, निश्छल, निर्दोष, निरहंकार .. .
देर तक..
देर-देर तक अब
भीगते गालों पर पनियायी आखें बोयी हुई माज़ी टूँगती रहती हैं
पर इस लिजलिजे चेहरे से एक अदद सवाल नहीं करतीं
कि, इस अफ़सोसनाक होने का आगामी अतीत
वो नन्हा सबकुछ निहारता, परखता, बूझता हुआ भी महसूस कैसे नहीं कर पाया
क्योंकि,
क्योंकि... . ज़िन्दग़ी के सूखे कुओं से सिर्फ़ और सिर्फ़ सुना जाता है, सवाल नहीं किये जाते.
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टिकरी, लकठो, पटउरा, कुटकी, बताशे - देसी मिठाइयाँ ; हिनुआना - तरबूज ; दँत-कोठ - दाँतों का खट्टे से नम होना ; टिकोरे - अमिया, आम का कच्चा छोटा फल ; पिठइयाँ - शिशुओं को पीठ पर बैठा कर घुमाना ; कनही - कानी, अपूर्ण ; ओक्का-बोका.. ..घुघुआ मामा - बचपन में खेले जाने वाले इन्डोर-गेम्स !
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(OBO के महा-उत्सव अंक - 12 में सम्मिलित रचना)
Comment
रचना के अंतर्निहित भाव और कथ्य को अनुमोदित करने के लिये हार्दिक आभार, आशुतोष जी.
शुभेच्छाओं हेतु सादर धन्यवाद आदरणीय अम्बरीषजी.
भाई राजपूतजी, आपको रचना पसंद आयी, यह मेरे लिये भी संतोष की बात है.
सहयोग बना रहे .. .
आदरणीय सौरभ जी ! वैसे तो हम आपकी यह रचना बचपन महोत्सव में पहले ही पढ़ चुके हैं तथा प्रतिक्रिया भी दे चुके है ! लेकिन इसे दोबारा पढ़ने पर पुनः उतना ही आनंद आ गया जितना इसे पहली बार पढने पर मिला था ! इस अनमोल सृजन हेतु आपको पुनः बहुत-बहुत बधाई ! सादर :
रोहितजी, रचना की सराहना हेतु धन्यवाद.
आराधनाजी, आपने जिस मुखरता और उद्भाव से अपनी प्रतिक्रिया दी है उससे मैं वस्तुतः अभिभूत हूँ.
धन्यवाद.
अरुण अभिनवजी, आपकी कविता की सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद. वैसे यह कविता आंचलिक कविता नहीं, अलबत्ता यादों को प्रस्तुति के क्रम में कुछ आंचलिक शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है कि वे व्यतीत काल के शिद्दत से जिये हुए शब्द हैं.
Saurabh Ji, I'm truly speechless. Read the poem in one breath.
ज़िन्दग़ी के सूखे कुओं से सिर्फ़ और सिर्फ़ सुना जाता है, सवाल नहीं किये जाते. helpless...yet I believe it is the completeness of our childhood that holds us strongly in our tumultuous times.
The best expression is 'बे-थकी आवारग़ी'...please do not mind my comment in English...just that I wanted say what came instantly to my mind after reading this amazing poem..
My best wishes and regards,
Aradhana
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