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निर्झर
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पर्वत के शिखर की
उतुन्गता से उपजे
शुभ्र,धवल
निर्झर से तुम
कटीली उलझी राहों
अवरोधों को अनदेखा कर
कल कल करते
गुनगुनाते
सम गति से चलते
अपनी राह बनाते जाना
गतिशीलता धर्म तुम्हारा
रुकने झुकना
नहीं कर्म तुम्हारा
प्रशस्त राहों के रही
बनाना है तुम्हे
अंधियारे मैं
दीप सा
जलते रहना
रजनी छाबरा

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Comment

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Comment by rajni chhabra on August 29, 2010 at 12:24am
aap sabhi sudhi pathkon ka bahut bahut aabhaar

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 29, 2010 at 12:13am
सुन्दर संदेशों को समाये हुए एक बहुत सुन्दर रचना|
Comment by आशीष यादव on August 26, 2010 at 10:11pm
sarwapratham pranaam,
nadi ki dhara ke samaan chalta manushya ka jiwan bhi kahi nahi rukna chahiye. bahut achchhi kawita hai.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 26, 2010 at 9:14pm
रजनी दीदी , पुनः आप ने एक सुंदर कविता प्रस्तुत की है , प्रकृति की सुंदरता को वर्णन करती हुई बहुत ही खूबसूरत रचना बन पड़ी है, धन्यवाद इस रचना के लिये,

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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