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तुम्हारी हर आजमाइश के आगे हम सर झुकाते चले गए

सोचा यह आजमाइश ही सच्चे प्रेम की निशानी है

इक आजमाइश पर उतरकर खरे खुश होने से पहले ही

तुम एक और आजमाइश संग खड़े मुस्काते नज़र आये

हम फिर जुट गए उस पर खरा उतरने की जुगत में

जब होने लगा यकीन तुम्हे प्यार पे मेरे आजमयिशो से परे

तुम लगे सोचने ख़त्म करने को सिलसिला आवाजाही का

तब तक मन का जीव मुक्त हो चुका था हर आजमाइश से

और सिर्फ खुली हुई आंखें मेरी रह गई बैचैनी का मंज़र लिए

पूछती एक ही ही सवाल तुमसे क्या यहीं प्यार है??????.........किरण आर्य

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Comment by Kiran Arya on January 18, 2012 at 3:33pm

सौरभ सर, नमस्कार. एक सार्थक टिपण्णी के लिए और भावो को इतनी गहराई से समझने के लिए हार्दिक आभार.....आपका हर शब्द प्रोत्साहित करता है ..........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 18, 2012 at 3:32am

समर्पिता की मनोदशा को जीती यह रचना कचोटते प्रश्न के आलम्बकारी लंगर नहीं लगाती बल्कि पताका फहराती है, समीचीन उत्तरों को चेताती, उन्हें कसौटी पर कसती. 

इस मंच पर रचनाकार की किसी पहली रचना का स्वागत है. 

Comment by Kiran Arya on January 17, 2012 at 3:38pm
योगराज जी आप सभी मित्रो के स्नेह और प्रोत्साहन के हम सदा अभिलाषी है, आपके प्रोत्साहन से ही सोच को दिशा मिलती है मेरी.......
Comment by Kiran Arya on January 17, 2012 at 3:37pm
नीरज जी सही पहचाना आपने वो उम्र भर प्यार की आजमाइश में लगे रहे, जब यकीन हुआ उन्हें प्यार पे हमारे तो हम ना थे खुश होने को............

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 17, 2012 at 3:26pm

आजमायश के ज्वार भाटा में फंसे मन के भावों को सुन्दरता से शब्द दिए हैं आपने किरण जी - साधुवाद स्वीकार करें. 

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