तुम्हारी हर आजमाइश के आगे हम सर झुकाते चले गए
सोचा यह आजमाइश ही सच्चे प्रेम की निशानी है
इक आजमाइश पर उतरकर खरे खुश होने से पहले ही
तुम एक और आजमाइश संग खड़े मुस्काते नज़र आये
हम फिर जुट गए उस पर खरा उतरने की जुगत में
जब होने लगा यकीन तुम्हे प्यार पे मेरे आजमयिशो से परे
तुम लगे सोचने ख़त्म करने को सिलसिला आवाजाही का
तब तक मन का जीव मुक्त हो चुका था हर आजमाइश से
और सिर्फ खुली हुई आंखें मेरी रह गई बैचैनी का मंज़र लिए
पूछती एक ही ही सवाल तुमसे क्या यहीं प्यार है??????.........किरण आर्य
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सौरभ सर, नमस्कार. एक सार्थक टिपण्णी के लिए और भावो को इतनी गहराई से समझने के लिए हार्दिक आभार.....आपका हर शब्द प्रोत्साहित करता है ..........
समर्पिता की मनोदशा को जीती यह रचना कचोटते प्रश्न के आलम्बकारी लंगर नहीं लगाती बल्कि पताका फहराती है, समीचीन उत्तरों को चेताती, उन्हें कसौटी पर कसती.
इस मंच पर रचनाकार की किसी पहली रचना का स्वागत है.
आजमायश के ज्वार भाटा में फंसे मन के भावों को सुन्दरता से शब्द दिए हैं आपने किरण जी - साधुवाद स्वीकार करें.
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