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उत्तर ढूंढना है

काश !

कोई दिन मेरा घर में गुजरता

बेवजह बातें बनाते

हँसते – हँसाते

गीत कोई गुनगुनाते

पर नही मुमकिन

मैं दिन घर में बिताऊँ!

 

एक नदी प्यासी पड़ी घर में अकेले

और रेगिस्तान में मैं जल रहा हूँ

थक चुका पर चल रहा हूँ

ढूढता हूँ अंजुली भर जल

जिसे ले

शाम को घर लौट जाऊँ

प्यास को पानी पिला दूँ !

 

मेरे आँगन की बहारों पर

जवानी छा गई है

और मैं

धूप के बाज़ार में बैठा हुआ हूँ

सूखता हूँ

भीगी लकड़ी की तरह से

घर के चूल्हे में

अभी जलना भी होगा !

 

चाहता हूँ

मेरे आँगन की बहारें

खिल उठे

प्यार का मेरे मधुर स्पर्श पाकर

सोचता हूँ डूब जाऊँ

प्यार की प्यासी नदी में !

 

पर विवश हूँ

क्या करूं मैं

भूख की रेखा खिची है ,

प्रश्न रोटी का खड़ा है बीच अपने

और उत्तर ढूंढना है !!

 

 

 

............................................ अरुन श्री!

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Comment

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Comment by Arun Sri on January 18, 2012 at 6:56pm
आदरणीय योगराज सर , धन्यवाद कि आपने मेरी रचना पर समय दिया और आपको पसंद आई ! मैंने तो बस अपने अनुभव और भावनाएं लिखी ! आपकी दृष्टी पड़ी तो कविता हो गई !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 17, 2012 at 3:21pm

//

ढूढता हूँ अंजुली भर जल

जिसे ले

शाम को घर लौट जाऊँ

प्यास को पानी पिला दूँ !//

भाई अरुण जी यह ख्याल तो गज़ब का है - वाह.

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