सुबह-सुबह लाउडस्पीकर पर बजरंगबली के गोलगप्पा ले के कूद पडने वाले गाने को सुन कर मेरा मन भी बजरंगबली की तरह कूदने को होने लगा. यों मैं बताता चलूँ कि इस गाने या भजन (?) की कोई तुक समझ में नहीं आती है. लेकिन बजता है तो कुछ जरूर होगी. या तो ये गीत है या भजन है.
लेकिन सुबह-सुबह मेरे घर के बगल की खाली जमीन पर गोलगप्पा खिलाये बिना कुदाने वाले कौन लोग आ गये ? यही जानने समझने के लिये मैं हडबडा कर घर के बाहर निकला तो देखता हूँ कि मेरे घर के बगल में जो खाली जमीन थी वहाँ दो-तीन लम्बी-लम्बी गाडियाँ खडी हैं. कपडों से कुछ शरीफ़ मगर चेहरे से बिल्कुल उलट लोग आस-पास की जगह का मुआयना कर रहे हैं. एक क्षण को तो मैं घबरा गया. ऐसे लोगों से देखने-मिलने का आदी तो हूँ ,मगर अपने घर के बगल में नहीं. घबडाना वाजिब था.
फिर तो अपने आप को कुछ छिपाते कुछ दिखाते मैं माहौल का जायजा लेने लगा. उन लोगों की कारगुजारियों से ये तो लगने लगा ये लोग जल्दी हिलने वाले नहीं हैं. बल्कि ये तो उस जमीन की नाप-जोख कर रहे हैं. इसका मतलब कि जो जमीन विगत कई-कई वर्षों से खाली पडी थी, जिसे मेरे मित्र दुबे जी ने मेरे साथ ही जिसे अपनी गाढी कमाई से ली थी, पर मकान बनने का काम शुरु हो रहा है. जब हमने जमीन ली थी तो ये खेत ही था. मैं तो अपनी जमीन पर मकान बना कर इस बियाबान को आबाद करने में लगा था. लेकिन दुबे जी अपने दूर के दूसरे मकान में रह कर यहाँ आने की हिम्मत जुटाते ही रह गये. हमने सोचा शायद अब वो हिम्मत आ गयी है.
आज भी इस कालोनी में दूसरे लोगों से बात करते समय मेरी नाक ऊँची रहती है. इस इलाके में अब पुराना घरैया जो ठहरा ! बात करते समय यकायक तहमद को अपनी टाँगो के बीच फ़ँसा कर मैं गन्जी-बनियान में ही अपने आप को ’खली’ समझने लगता था, जैसे उस समय यहाँ कालोनी में रहना किसी युद्ध करने जैसा हो और मैं कालोनी का कोई सिपहसलार हूँ. लेकिन धीरे धीरे लोग आते गये और मेरी हालत मुगलों के शासन की तरह लगातार सिकुडती चली गयी.
अब जहाँ एक समय था कि मेरा एक मंजिला मकान दूर से ही दिखता था. कोई और कायदे का मकान था ही नहीं. और अब हालात ये हैं कि लोग मेरे घर के सामने खडे हो कर ही मेरे ही मकान का पता पूछते हैं. अब अट्टालिकाओं के बीच वो दिखता ही नहीं. खैर. एक खेत जो धीरे-धीरे टोला बनते बनते कालोनी बनने लगा वो अब पाश की श्रेणी में परिवर्तित होता जा रहा था.
मैं तो यूँ ही भकुआया सा अपने आस-पास को निहारा करता था. इस कालोनी को ’पाश कालोनी’ की पहचान से अगर कोई बचाता था तो वो मेरे बगल की जमीन ही थी. और इस बात की सन्तुष्टि रहती थी कि कुछ भी हो दुबे जी तो कम से कम मेरे साथ खडे हैं. लेकिन सुबह-सुबह का ये आयोजन मेरी उम्मीदों का क्रियाकर्म सा लग रहा था. क्योंकि उपस्थित जन कहीं से भी दुबे जी के घर के नहीं लग रहे थे. इसका मतलब ये हुआ कि सत्ता का हस्तान्तरण हो चुका था. और ये नये लोग कहीं से भी मेरी बिरादरी के नहीं लग रहे थे. उनमें से एक-दो लोग मेरे घर को दिखा के बार-बार कुछ बोल रहे थे. मुझे देख के एक ने उँगली से मुझे ऐसे बुलाया जैसे वो दूध से कोई मक्खी निकाल रहा हो. खींसे निपोरते हुये मैं चारदिवारी से सट कर ऐसे खडा हो गया कि मेरी खल्वाट खोपडी बस डूबते हुये सूरज की तरह लग रही थी. उसने मुझे बुला कर उस जमीन के मालिक होने का जयघोष किया. हिचकते हुये मैने पूछ ही लिया कि दुबे जी को क्या हुआ. इस पर उसका जबाब सुन कर मेरे तो पसीने आ गये. दुबे जी ने इन महाशय से पैसे लिये थे जिसकी भरपायी इस जमीन से हुई थी. उन लोगों के बैकग्राउण्ड के लिये इतनी जानकारी ही मुफ़ीद थी मेरे लिये.
अब ये तो सब समझते हैं कि किसी कालोनी में खाली पडी जमीन की उपयोगिता क्या हो सकती है. आस-पास के घरों के कूडे और वेस्ट मैटेरियल शाट्पुट या जेवेलिन की तरह इस खाली जमीन में टपकते रहते हैं. यहाँ तो इतने सालों में कर्ज के सूद की तरह बहुत कुछ जमा होता जा रहा था.
अब मैं अपनी परेशानी बताने जा रहा हूँ. इस खाली जमीन का भरपूर उपयोग तो वस्तुतः मैं ही करता था. जिस शाट्पुट की बात मैने की है उसमें से ज्यादातर मिसाइल मेरे ही घर के हुआ करते थे. क्या शान था. जाडे के दिनों में छत पर बैठे-बैठे मुंगफ़ली के छिलके और सब्जी के छिलके तो जाते ही रहते थे, घर का कचडा भी जाता था. और गर्मी के दिनों में तो रात के समय छत पर सोते समय छोटी-मोटी परेशानियों का संतुष्टिकारक समाधान भी छत पर से ही हो जाता था. दूसरे, शादी ब्याह के दिनों में उस खाली जगह का उपयोग भोज-भात के लिये भी हो जाता था. इसके भी फ़ायदे थे. एक तो वो जमीन साफ़ हो जाती थी, दूसरे उस दिन घर का खाना बन्द होता था. एक राज की बात ये भी है कि दुबे जी से अपनी जान-पहचान का रोब दिखा कर किसी-किसी महानुभाव से उस जमीन का किराया भी वसूल कर लेता था. क्या ही मजा ! लेकिन मेरी ये सारी सुविधाएँ मेरी आंखो के सामने उडती जा रही थीं.
ऐसा नहीं है कि मेरे वहां कचडा फ़ेकने से औरों को परेशानी नहीं होती थी. हवा चलने पर सारी पोलीथीन राजीव रंजन जी के घर के आगे जमा हो जाती थी और वो बेचारे उसकी सफ़ाई करवाते रहते थे. इसे कहते है करे कोई और भरे कोई. वो बेचारे जब भी मिलते थे अपना दुखडा रोते थे और मैं निर्विकार भाव से सुना करता था. यदा कदा प्लास्टिक और कूडे पर अपनी कीमती राय भी जाहिर कर देता था जिससे उनको ये न लगे कि ये सारे कूडे मेरे घर से हैं, या, आज की समस्याओं के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है. लेकिन भाई उस खाली जमीन का फ़ायदा तो मैं ले ही रहा था.
अभी पिछले दिनों ही बडकू के बेटे ने बचे हुए भात (चावल) और जूठन के साथ-साथ कटोरी भी फ़ेंक दी थी. ये बात एक दिन के बाद पता चली थी. लेकिन घर के पास कूडा फ़ेकने का फ़ायदा ये रहा कि कटोरी के साथ साथ मैं वहीं से एक-दो चम्मच भी लेता आया.
लेकिन ये सारी बातें अब कहीं खो जायेंगी और उस जमीन पर भी एक अट्टालिका तैयार होगी जिसके आगे मेरा घर और दबा हुआ दिखेगा. फ़िर तो बगल वाले घर की छत से मेरे ही घर की छत पर कूडा न फेंका जाने लगे. अगर कूडा नहीं भी फेका गया तो उन कूडा नजरों का क्या करुँगा, जो दिन रात मेरे घर पर गिरती रहेंगी ! जिसका परिणाम ये कि बडकू की बीबी सुबह की धूप में डाले कपडे शायद छत से रात में हटाने जाया करेगी. उसके बेटे को बगल में कूडा फेंकने पर भूत काटने का डर दिखाना होगा. और सबसे बडी बात, मुझे भी अपने घर के कूडे को फेंकने के लिये सुबह-सुबह पोलिथिन ले के किसी और की खाली जमीन की तलाश करनी होगी.
वाकई बहुत बुरा लगता है अपनी आजादी के छिन जाने का.
Comment
काफ़ी दिनों के बाद खाली जमीन पर आया हूँ. .......कई लोगों ने अपने आप को चार दीवारी के इस तरफ़ या उस तरफ़ पाया है.....धन्यवाद है उन सभी पाठकों का जिन्होंने मेरी खाली जमीन पर चहलकदमी की है...... केएम मिश्रा जी ने बजट सत्र की तरह हसीं का भी अंकेक्षण करा दिया है...आखिर नाले के पानी की धार तीर की तरह लग रही होगी...सुनीता जी ने को विशेष आभार देना चाहूँगा..बागी जी, अग्रज सौरभ जी, भाई अश्विनी जी, दीपक जी, योग्यता जी, राम मनी जी का भी मै आभारी हूँ....
शब्दों का अद्भुत संगम प्रिय भाई शुभ्रांशु जी ,,"" भकुआया ""खींसे निपोरते हुये""भात""
वैसे इसी से मिलती जुलती मेरे भी व्यथा है .....हास्य कथा अनूठी बन पड़ी है.........................||जय भारत||
’खाली ज़मीन’ की उपयोगिता और ज़मीन वाले की लाचारी ! वाह ! सही कहा गया है, जब भावनाएँ चरम के भी ऊपर हो जायँ, तो संवेदना के सामने हास्य का कारण बनता है. इस रचना की अंतर्धार के लिये रचनाकार शुभ्रांशु भाई को बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ.
’बड़कऊ’ की आसन्न दुर्दशा पर हुई चिंता केलिये हार्दिक आभार.. . हा हा हा हा...............
shaandaar ji
बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने पाण्डेय जी, गिन कर ५ बार हंसा हूँ. वाकई, सच में, झूठ नहीं बोलूँगा आपसे............................................ एक लेख के बहाने आपने शहरों में कूड़ा फ़ैलाने वालों (खास कर पास पड़ोस की ज़मीन पर), पर करार व्यंग्य किया है. हो सकता है की उस ज़मीन पर माकन बनने से आपको कुछ असहजता महसूस पर इस लेख को पढ़ने से मुझे मेरे उस पडोसी की याद आ गयी मेरी एक प्लाट पर अपने घर की नाली खोल रखे है और मैं हर साल वहाँ पर ४ ट्रेक्टर मिटटी गिरवाता हूँ. और उस भले मानुस से निवेदन करता हूँ की कृपया कुछ और उपाय करें इस नाली का.........खैर. एक हसमुख व्यंग्य लेख के लिए आभारी हूँ. ऐसे ही लिखते रहें. नमस्कार.
good one...
बहुत ही अच्छी रचना है ,
नमस्कार आज आपके इस व्यंग्य की चर्चा हमने नई पुरानी हलचल पर की है देखियेगा अवश्य...
सादर
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/2012/01/blog-post_638.html#...
वाह वाह भाई शुभ्रांशु जी खाली जमीन के बहाने आपने बड़े साफगोई से दिल का कचरा साफ़ किया है, बहुत ही बढ़िया कथानक लेकर आप चले हैं. शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखने में सफल है, हास्य के बहाने ही सही कई-कई सामाजिक कुरूपताओं का बेहतरीन चित्रण किया है | आपकी लेखनी बहुत कुछ कहने में सक्षम है, लेखन जारी रखे, ’बडकू’ का Reaction क्या होगा सोच-सोच कर मैं हसे जा रहा हूँ |
कुल मिलाकर एक बेहद खुबसूरत हास्य प्रहसन , बधाई स्वीकार करें |
nice one ji
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