अश्रु गण साथी रहे
मेरे ह्रदय की पीर बनकर !
रात चुभ जाती हमेशा तीर बनकर !
मैं भटकता नीर बनकर !
तुम सुनहरे स्वप्न सी हो
मैं नयन हूँ !
बिन तुम्हारे मैं अधूरा
और मेरे बिन तुम्हारा अर्थ कैसा !
जीत की उम्मीद से प्रारंभ होकर
निज अहम के हार तक का ,
प्रथम चितवन से शुरू हो प्यार तक का ,
प्यार से उद्धार तक का
मार्ग हो तुम !
मै पथिक हूँ !
निहित हैं तुझमे सदा से
कर्म मेरे
भाग्य मेरा,
और सार्थकता तुम्हारी
कौन है मेरे अलावा !
मेरे माथे का तिलक हो
कौन कहता धूल हो तुम !
कीच में हो किन्तु पावन फूल हो तुम !
रंग की सुन्दर मरीचिका से परे
तुम गंध हो !
मैं पवन हूँ !
है तेरे सानिध्य से पहचान मेरी ,
और मेरे बिन
तुम्हारा भी कहाँ अस्तित्व होगा !
तुम विभा हो
और मैं
तेरा अरुण हूँ !
कर्म मैं विश्राम हो तुम !
मैं नही तो कौन तुमको मान देगा
तुम न हो तो
कौन देगा अर्घ्य मुझको !
......................................अरुन श्री !
Comment
कर्म मैं विश्राम हो तुम !
मैं नही तो कौन तुमको मान देगा
तुम न हो तो
कौन देगा अर्घ्य मुझको !
सुन्दर रचना अरुण जी , भावों का बढ़िया सम्प्रेषण , बधाई आपको |
धन्यवाद आदरणीय !
रात चुभ जाती हमेशा तीर बनकर !
मैं भटकता नीर बनकर !
तुम सुनहरे स्वप्न सी हो
मैं नयन हूँ !
राजेश कुमारी मैम , रचना आपके ह्रदय तक पहुँच सकी सार्थक हो गई !
और मेरे बिन
तुम्हारा भी कहाँ अस्तित्व होगा !
तुम विभा हो
और मैं
तेरा अरुण हूँ !वाह अतिसुंदर बहुत प्रभावशाली रचना
सराहना के लिए धन्यवाद आशा मैम !
इसी पूरकता का नाम जिन्दगी है .. हम सब एक दूजे से बने एक दूजे सें गूंथे .. सार्थकता भी तो इसी में है जीवन की .. प्रभावशाली रचना के लिए बधाई अरुन श्री जी
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