दस फागुनी दोहे -
मन में संशय न रहे खुले खुले हों बंध ,
नेह छोह के पुष्प से निकले मादक गंध |
हुलस उलस इतरा रहे गोरी तेरे अंग ,
मेरे मन बजने लगे ढोल मजीरा चंग |
गोरी फागुन रच रहा ये कैसा षडयन्त्र ,
तू कानो में फूंकती आज मिलन के मन्त्र |
रंग लगाने के लिए तू बैठी थी ओट ,
मेरा मन सकुचा गया था अंतर में खोट |
होली होला होलिका सारे हैं उन्मुक्त ,
जिसका मुंह काला हुआ वही हो गया भुक्त |
खेत बगीचे देखिये फैले कितने रंग ,
फागुन होली खेलता आज प्रकृति के संग |
बैरी फागुन ले उड़ा बड़े बड़ों के होश ,
भांग ठंडई का नहीं इसमें सारा दोष |
रंग लगाने के लिए न मुहूर्त न काल ,
खुला निमंत्रण दे रहे साफ़ सुथरे गाल |
गलियाँ मंदिर घाट सब होली में गुलज़ार ,
आज मसाने में सजा बाबा का दरबार |
कौन जोगीरा गा रहा सारा रारा राग ,
बाहर बाहर भींगना भीतर भीतर आग |
|| अभिनव अरुण ||
(29022012)
Comment
फागुन की अल्हड़ता और मस्ती का सुन्दर चित्रण किया आपने माननीय 'अभिनव' जी|
कौन जोगीरा गा रहा सारा रारा राग ,
बाहर बाहर भींगना भीतर भीतर आग |
ये दोहा विशेष रूप से पसंद आया|
गोरी फागुन रच रहा ये कैसा षडयन्त्र .. क्या सुन्दर पंक्ति है !!
इन नटखट दोहों पर मेरी हार्दिक बधाई लीजिये, अभिनव भाईजी.
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