भूला कहाँ हूँ कच्चा घर अपने गाँव का ||
जो बना था लकड़ी का दर अपने गाँव का ||
थी वो महकती मिटटी और वो कच्ची गली ,
घूमे ख़्यालों में मंज़र अपने गाँव का ||
आँखे हुई नम , देखकर पानी बरसात का ,
जो याद आये जोहड़ अक्सर अपने गाँव का ||
जब गाँव छोड़ा तो वालिद समझाए मुझे ,
झुकने न देना कभी तुम, सर अपने गाँव का ||
कैसी हवा आई है ये मगरिब से "नजील ",
मुझको सताए है अब डर अपने गाँव का ||
Comment
सही फ़रमाया आनंद जी आपने कोशिशे कभी अदनी नहीं होती ......क्योंकि कोशिश से ही हम कुछ प्राप्त कर सकते हैं .....:-)
धन्यावाद मृदु जी ...... उत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार .......
धन्यावाद प्रदीप कुमार सिंह जी ...... उत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार .......
धन्यावाद वाहिद जी ...... उत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार .......
धन्यावाद बागी जी ...... उत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार .........मेरे ख्याल से जो अपनापन गाँव के जीवन में है वो शहरी जीवन में नहीं
गाँव की मिट्टी से जुड़े ख़ूबसूरत जज़्बात की पेशगी पर बधाई नज़ील साहब|
कैसी हवा आई है ये मगरिब से "नजील ",
मुझको सताए है अब डर अपने गाँव का ||
बहुत सुंदर भाव, प्रस्तुति. बधाई.
थी वो महकती मिटटी और वो कच्ची गली ,
घूमे ख़्यालों में मंज़र अपने गाँव का ||
अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें |
खुबसूरत अशआर कहे है नज़ील जी, गाँव की बात ही न्यारी है, अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति पर दाद कुबूल करें |
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