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कौन कहता है जन्नत इसे,
हम से पूछो जो घर में फंसे।
न हिफाजत, न इज्जत मिली,
कर- कर कुर्बानी हम मर गए।
दुश्मनों की जरूरत किसे,
जुल्म अपनों ने ही हम पे किए।
हमने हर शै संवारी मगर,
खुद हम बदरंग होते गए।
अपने हाथों बनाया जिन्हें,
हाथ उनके ही हम पर उठे।
घर के अंदर भी गर मिटना है,
तो संभालों ये घर, हम चले।
जिसमें दिन-रात हम जले,
ऐसे घर से हम बेघर भले।
कौन कहता है जन्नत इसे,
हम से पूछो जो घर में फंसे।

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on March 11, 2012 at 3:48pm

इसे कहते है यथार्थ की बेबाक और निर्भीक बयानी इसके लिए हार्दिक हार्दिक साधुवाद श्री हरीश जी !! सच है हम सबको अपनी पीड़ा अपनी परिस्थितियाँ खुद भोगनी होती हैं और राह भी खुद तलाशनी होती है | व्यवस्था में मानवीयता का ह्रास दुखद है !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 10, 2012 at 11:11pm

हमने हर शै संवारी मगर,
खुद हम बदरंग होते गए।

सुन्दर .. .

Comment by Yogyata Mishra on March 10, 2012 at 9:05pm

owsm...!!!!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 10, 2012 at 7:26pm

आदरणीय हरीश जी,

अंतरतम की पीड़ा का मार्मिक प्रस्तुतीकरण| हार्दिक आभार आपका,

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 10, 2012 at 6:30pm

हमने हर शै संवारी मगर,
खुद हम बदरंग होते गए।
अपने हाथों बनाया जिन्हें,
हाथ उनके ही हम पर उठे।

बहुत दर्द छुपा है. हमने महसूस किया. बधाई.

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