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मैंने जीना चाहा था

सुर्ख इबारत बयाँ करेगी – मैंने जीना चाहा था,
चाक कलेजे के ज़ख्मों को मैंने सीना चाहा था;
जो भी आया उसने ही कुछ दुखते छाले फोड़ दिए,
वहशत की आग बुझाने को मेरे सब सपने तोड़ दिए;
तेरे आँचल के धागों से रिसना ढकना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी- मैंने जीना चाहा था |

अपनी ही रुसवाई पर, हम तो हँसते रहे सदा,
गम को गले लगा के रोये, खुशियाँ करते रहे विदा;
गम बाजारू हों ना जाएँ, आँसू पीना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी – मैंने जीना चाहा था |

तुझको देखा, तुझको चाहा, मैंने तुझको जाना था,
दो पल जी लूँ तेरा बनकर, और तो ना कुछ पाना था;
कुछ सूखे ज़ख्मों का मैंने दर्द भुलाना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी – मैंने जीना चाहा था |

तेरे होठों की जुम्बिश को मैंने माथे पर रखा,
तेरी कही-अनकही बातों को पल-पल पहचाना था;
मैं ना तुझसे दगा करूँगा, यकीं दिलाना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी – मैंने जीना चाहा था |

बस तेरे इक पल की खातिर मैंने दर्द हज़ार जिए,
प्यास बुझाने की खातिर अपने आँसू दिन रात पिए;
ना कोई दरकार और थी, ना कुछ लेना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयान करेगी – मैंने जीना चाहा था |

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 12, 2012 at 5:35pm

बस तेरे इक पल की खातिर मैंने दर्द हज़ार जिए,
प्यास बुझाने की खातिर अपने आँसू दिन रात पिए;
ना कोई दरकार और थी, ना कुछ लेना चाहा था

प्रिय चातक जी,

बहुत ही उम्दा भावों कि पेशगी की आपने| बहुत ख़ूब| इस मंच पर केवल पाठक ही नहीं अपितु अनुभवी मार्गदर्शक भी हैं| सही मायने में यह मंच एक परिवार की तरह है| :-)

Comment by Chaatak on March 12, 2012 at 5:25pm

Ashutosh ji, Thanks a lot for encouraging me on this platform which is all new for me !

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