रात्रि का अंतिम प्रहर घूम रहा तनहा कहाँ
थी ये वो जगह आना न चाहे कोई यहाँ
हर तरफ छाया मौत का अजीब सा मंजर हुआ
घनघोर तम देख साँसे थमी हर तरफ था फैला धुआं
नजर पड़ी देखा पड़ा मासूम शिशु शव था
हुआ जो अब पराया वो अपना कब था
कौंधती बिजलियाँ सावन सी थी लगी झड़ी
कौन है किसका लाल है देख लूं दिल की धड़कन बढ़ी
देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी
जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी
देती कफ़न क्या कैसे देती आग थे तार तार वस्त्र और उसके भाग्य
आस थी मिले कफ़न दूँ चिता लाल को दे न सकी हाय रे दुर्भाग्य
देख दशा उस लाल की प्रक्रति भी जार जार रोई
हो न ऐसा कभी ऐ खुदा चिता/कफ़न को भी तरसे कोई
Comment
स्नेही राकेश जी. स्थिति स्पष्ट कर दी है. आगे ध्यान रखूंगा. आभार.
आदरणीय प्रदीप जी,बहुत सुन्दर कविता लिखी है.
देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी
जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी
बहुत ही भावपूर्ण पंक्तियाँ हैं.
आदरणीय अश्वनी जी , वाहिद जी, प्रवीन जी एवं समस्त ओ.बी.ओ. परिवार
आदरणीय प्रदीप जी,
दुर्दांत समाज में मानव की विवशता का मार्मिक चित्रण| राकेश जी और अश्विनी जी से मैं भी सहमत हूँ कुछ सन्दर्भ समझ नहीं आये| आभार,
स्नेही प्रदीप जी ,,सादर अभिवादन ,,अति भावपूर्ण काव्य ,जहां तक मेरा मानना है की काव्य हृदय के उन्मुकत उद्गार हैं जिसे किसी नियम में बांधना निर्मल भावनाओं के साथ अन्याय होगा ,,कविताओं पर कई प्रयोग हुए और मेरे समझ में शायद उसके सशक्त झंडाबरदार अज्ञेय जी थे जिन्होने कविता पर अनेकानेक प्रयोग किए उनके कई प्रयोग सफल भी हुए ||कहने का सार यही है कि अगर हृदय के उद्गार को समझने लायक भाषा में व्यक्त किया जाये और पाठक उसका मर्म समझ सके तो काव्य सार्थक है ||......जय भारत
माननीय प्रदीप जी, सादर नमस्कार. बहुत ही सुंदर कविता है. बहुत अच्छा प्रयत्न. कहीं कहीं सन्दर्भ मई नही समझ पाया.
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