उन्हें हक है कि मुझको आजमाएं
मगर पहले मुझे अपना बनाएं
खुदा पर है यकीं तनकर चलूँगा
जिन्हें डर है खुदा का सर झुकाएं
जुदा होना है कल तो मुस्कुराकर
चलो बैठे कहीं आँसू बहाएं
तुम्हारे आफताबों की वज़ह से
अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं
तिरा दरबार है मुंसिफ भी तेरे
कहूँ किससे यहाँ तेरी खताएं
खता उल्फत की करने जा रहा हूँ
कहो अय्याम से पत्थर उठाएं
अंधेरे सूर्य से डरते नही है
चलो हम दीप बनके जगमगाएं
............................... अरुन श्री !
Comment
आदरणीय अरुण भाई..ऐसा अनेक बार हुआ है,जब अनेक का अनेकों हो गया है|स्वयं मैथिलीशरण गुप्त ने भारत भारती में कई बार ऐसा किया है|अपने सौर मण्डल के सापेक्ष एक आफताब वाली बात वक्रतुंड महाकाय कोटि सूर्य समप्रभ के सम्मुख मिथ्या हो जाती है|मैं कोई वरिष्ठ नहीं हूँ मित्र और कोई आलोचक भी नहीं|मुझे आपकी रचना बहुत ही पसंद आई|फिलहाल आपके द्वारा दिए गए उदाहरणों को हृदयंगम कर लिया है और आपकी अपना पक्ष रखने की इस कला ने भी मुझे आपका मुरीद बना दिया है|सादर वंदे
संदीप जी ! आपने गज़ल को अपना समय दिया ! आभारी हूँ !
प्रदीप सर ! आपकी प्रतिक्रिया ने गज़ल का सम्मान बढ़ाया ! आभारी हूँ !
साही सर ! धन्यवाद सराहना के लिए !
मनोज मयंक सर , मुझे भी यही पता है कि आफताब सूरज को कहतें हैं !
तुम्हारे आफताबों की वज़ह से
अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं..............ये एक प्रतीकात्मक बात है ! मैंने कहने का प्रयास किया है कि सक्षम लोग भी गलत लोगों की दासता स्वीकार कर अपनी क्षमता खो देते है ! बाकी आप वारिष्ट है ! आप जो कहेंगे निश्चित ही सही होगा !
और रही इसे बहुवचन की तरह प्रयोग करने की बात तो ऐसे कई उदहारण है जहाँ इस शब्द का प्रयोग किया गया है ! जैसे
बाकी गज़ल पर आपकी सराहना के लिए धन्यवाद !
ख़ूबसूरत शब्द, ख़ूबसूरत भाव, ख़ूबसूरत ग़ज़ल| इससे अधिक कह पाना मेरे वश का नहीं अरुण जी| बहुत सुन्दर| बधाईयां!
बहुत खूब ...वाह वाह अरुण भाई ....गजल अच्छी बनी है और अंदाजेबयां भी माशाल्लाह...सिर्फ एक शेर समझ में नहीं आया ....
तुम्हारे आफताबों की वज़ह से
अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं|मुझे जहाँ तक पता है आफताब सूरज को कहते हैं और इसे बहुवचन की तरह प्रयुक्त नहीं किया जा सकता|फिर भी विरोधाभास का एक बेहतरीन उदाहरण|आभार|
kish ansh ko sabse behtar chunu, asmanjas main hoon. snehi arun ji sadar badhai
मंजू मैम ! सराहना हेतु धन्यवाद !
खता उल्फत की करने जा रहा हूँ
कहो अय्याम से पत्थर उठाएं
बहुत खुब अरूण जी
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